भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहे / जयप्रकाश त्रिपाठी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:19, 20 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जयप्रकाश त्रिपाठी |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आग बटोरे चाँदनी, नदी बटोरे धूप।
हवा फागुनी बाँध कर रात बटोरे रूप।

पुड़िया बँधी अबीर की मौसम गया टटोल।
पोर-पोर पढ़ने लगे मन की पाती खोल।

नख-शिख उमर गुलाल की देख न थके अनंग
पीतपत्र रच-बस लिए चहुंदिश रंग-बिरंग।

फागुन चढ़ा मुण्डेर पर, प्राण चढ़े आकाश,
रितुरानी के चित चढ़ा रितु राजा मधुमास।

नागर मन गागर लिए, बैठा अपने घाट,
पछुवाही के वेग में जोहे सबकी बाट।

मन्त्रमुग्ध अमराइयाँ, चहक-महक से गाँव,
मंथर-मंथर फिर रहा मौसम ठाँव-कुठाँव।