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"द्रोण मेघ / राहुल कुमार 'देवव्रत'" के अवतरणों में अंतर

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सारा खेल नजर का धोखा ही तो है
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क्यों नहीं छिटकते रहते इंद्रधनुष के रंग
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हर वक्त आकाश में?
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आवरण उतरते ही दीखने लगता है
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नीला मटमैला स्याह-सफेद मिश्रित आकाश
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या कि इस नीले मटमैले जीवन को
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क्षणमात्र के लिये ही सही
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तरंगित करने के संधान का सुफल है ये
  
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आह! है बाधा बड़ी
  
कई दिन हुए
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पुराने वक्त की आहट
नदी तालाब का पानी जम गया है  
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अन्वेषक की भांति
पांव ठीक से रखना ... संभालकर
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संपूर्ण शरीर में ढूंढ़ ही लेती है सबसे कोमल चमड़ी
जोर की फिसलन है ज़रा अदब से चलो
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चलते-चलते पीठ पर जोर की थपकी लगाए
पता है? थोड़े दिन पहले
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...और फ़ना
यहाँ किनारे हुआ करते थे
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सरेराह पकड़ लेती है तेरी छाया
शहर से थोड़ी दूर तो थी ये जगह
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मेरे हाथ की छोटी ऊंगली सहसा
मगर यहाँ हर घड़ी
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पैर से लिपट गति को बांधे साथ-साथ चाहती है चलना
सुरीली आवाज चटखती रहती थी
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चलती भी है
अद्भुत जीवन हुआ करता था बहते पानी में
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जमी है जब से कब्र—सी लगती है मुझे
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महत्त्वाकांक्षा के रथ पर आरूढ़ होते ही
अभी जूते पहन
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त्यागना होता है वजन सम्बंधों का
कितने आराम से चल रहे हो तुम
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सो तूने त्यागे
याद होता जो तब का मंज़र
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नीरस सफर की थकावट से चूर ये बोझिल आंखें
पांव धरते ही रोएँ सिहर जाते
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झेंपती हैं तो शरीर भी शिथिल पड़ता जाता है
तब के उलट सबकुछ बदला-बदला-सा है इस दम
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डुबोकर छुपे बैठे हैं सीने को आस्तीन बनाए
बहुत ज़रूरी हो
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टूटे ख्वाब और बेतरतीब नोकदार टुकड़े सीसे के  
तो ही कोई घर से निकलता है
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सहज होते ही बोध करा जाते
रोशनी आकाश से छन नहीं पाती
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कि तेरा असहज रहना ही तेरा प्रारब्ध है  
घिरे बादल से चिपट जाती है  
+
तिसपर बिजली-सी कौंध जाती हैं
शफ्फाक-सी उड़ती है बरफ़ हवा के साथ
+
पटल पर तेरी नीमबाज़ आंखें
जब आनंद से नाचते गाते हो तुमलोग
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भय और पीड़ा की सीमा लांघते
परिंदे ताकते हैं वीराने को
+
ये नासपीटे अब और क्या चाहते हैं मुझसे?  
सफेद चादर बिछी है चारों तरफ मैदान पूरा खाली है
+
 
क्या तुम्हें डर नहीं लगता?  
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इन समवेत आक्रमणों से लड़ते चलना है  
उठते हो रात-बिरात
+
भीतर-ही-भीतर कई दफे ...रोजाना
नकाब ओढ़े हुए देखते हो
+
टुटन की कोई अहमियत नहीं
बरफ का गिरना
+
पता है मुझे
सिकुड़ के बैठा है अबाबील उस सनोबर पर
+
झंडे तैयार खड़े रखे हैं कोने में
हवा जब जोर से बहती तो कुनमुनाता है  
+
दिन निकलने को है  
सजा-सी है चार दिन बीत चुके हैं
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अलविदा!
आंखें नम हैं उसकी पेट खाली है  
+
चलो! चलते हैं फिर से नए मोर्चे पर
 
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18:38, 12 मई 2018 के समय का अवतरण

सारा खेल नजर का धोखा ही तो है
क्यों नहीं छिटकते रहते इंद्रधनुष के रंग
हर वक्त आकाश में?
आवरण उतरते ही दीखने लगता है
नीला मटमैला स्याह-सफेद मिश्रित आकाश
या कि इस नीले मटमैले जीवन को
क्षणमात्र के लिये ही सही
तरंगित करने के संधान का सुफल है ये

आह! है बाधा बड़ी

पुराने वक्त की आहट
अन्वेषक की भांति
संपूर्ण शरीर में ढूंढ़ ही लेती है सबसे कोमल चमड़ी
चलते-चलते पीठ पर जोर की थपकी लगाए
...और फ़ना
सरेराह पकड़ लेती है तेरी छाया
मेरे हाथ की छोटी ऊंगली सहसा
पैर से लिपट गति को बांधे साथ-साथ चाहती है चलना
चलती भी है

महत्त्वाकांक्षा के रथ पर आरूढ़ होते ही
त्यागना होता है वजन सम्बंधों का
सो तूने त्यागे
नीरस सफर की थकावट से चूर ये बोझिल आंखें
झेंपती हैं तो शरीर भी शिथिल पड़ता जाता है
डुबोकर छुपे बैठे हैं सीने को आस्तीन बनाए
टूटे ख्वाब और बेतरतीब नोकदार टुकड़े सीसे के
सहज होते ही बोध करा जाते
कि तेरा असहज रहना ही तेरा प्रारब्ध है
तिसपर बिजली-सी कौंध जाती हैं
पटल पर तेरी नीमबाज़ आंखें
भय और पीड़ा की सीमा लांघते
ये नासपीटे अब और क्या चाहते हैं मुझसे?

इन समवेत आक्रमणों से लड़ते चलना है
भीतर-ही-भीतर कई दफे ...रोजाना
टुटन की कोई अहमियत नहीं
पता है मुझे
झंडे तैयार खड़े रखे हैं कोने में
दिन निकलने को है
अलविदा!
चलो! चलते हैं फिर से नए मोर्चे पर