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धूप कहूँ तुमको या छाया ? / धीरज श्रीवास्तव

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जीवन तुमको समझ न पाया !
धूप कहूँ तुमको या छाया ?


नेह तुम्हें सब किया समर्पित
गला घोंटकर सपनों का !
मगर न भीगा हृदय तुम्हारा
व्यर्थ गया जल नयनों का !
मैंने चाहा जी भर लेकिन,
तुम्हें निभाना प्यार न आया !
जीवन तुमको समझ न पाया !
धूप कहूँ तुमको या छाया !


संबंधों के तार कँटीले
रहे उलझते पाँवों में !
कभी शहर में चैन न आया
मिली वेदना गाँवों में !
सदा विषमता के आँगन में
तुमने मुझको खूब नचाया !
जीवन तुमको समझ न पाया !
धूप कहूँ तुमको या छाया !


कैसे करूँ भरोसा बोलो
नहीं रही अब कोई आशा !
घात लगाये है प्राणों पर
कई दिनों से घोर निराशा !
किस पर मैं आरोप लगाऊँ
छलता जब अपना ही साया !
जीवन तुमको समझ न पाया !
जीवन तुमको समझ न पाया !