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धूप / केदारनाथ अग्रवाल

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धूप चमकती है चांदी की साड़ी पहने

मैके में आई बिटिया की तरह मगन है

फूली सरसों की छाती से लिपट गई है

जैसे दो हमजोली सखियाँ गले मिली हैं

भैया की बाहों से छूटी भौजाई-सी

लहंगे की लहराती लचती हवा चली है

सारंगी बजती है खेतों की गोदी में

दल के दल पक्षी उड़ते हैं मीठे स्वर के

अनावरण यह प्राकृत छवि की अमर भारती

रंग-बिरंगी पंखुरियों की खोल चेतना

सौरभ से मह-मह महकाती है दिगन्त को

मानव मन को भर देती है दिव्य दीप्ति से

शिव के नन्दी-सा नदिया में पानी पीता

निर्मल नभ अवनी के ऊपर बिसुध खड़ा है

काल काग की तरह ठूँठ पर गुमसुम बैठा

खोई आँखों देख रहा है दिवास्वप्न को ।