भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धेनु दुहत हरि देखत ग्वालनि / सूरदास

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:28, 18 अप्रैल 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग बिलावल

धेनु दुहत हरि देखत ग्वालनि ।
आपुन बैठि गए तिन कैं सँग, सिखवहु मोहि कहत गोपालनि ॥
काल्हि तुम्हैं गो दुहन सिखावैं, दुहीं सबै अब गाइ ।
भौर दुहौ जनि नंद-दुहाई, उन सौं कहत सुनाई ॥
बड़ौ भयौ अब दुहत रहौंगौ, अपनी धेनु निबेरि ।
सूरदास प्रभु कहत सौंह दै, मोहिं लीजौ तुम टेरि ॥

भावार्थ :-- श्यानसुन्दर गोपों को गायें दुहते देखते हैं । (एक दिन) स्वयं भी उनके साथ बैठ गये और गोपालों से कहने लगे -`मुझे भी सिखलाओ ।' (गोपों ने कहा-) `इस समय तो सब गायें दुही जा चुकी हैं, कल तुम्हें गाय दुहना सिखलायेंगे।' तब उनसे सुनाकर कहने लगे -`तुम लोगों को बाबा नन्द की शपथ है, सबेरे मत दुह लेना । मैं अब बड़ा हो गया, अपनी गायें अलग करके स्वयं दुह लिया करूँगा ।' सूरदास जी कहते हैं कि मेरे स्वामी शपथ देकर (गोपों से) कह रहे हैं -`तुम लोग मुझे पुकार लेना ।'