भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नए साल का गीत / एकांत श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
Pradeep Jilwane (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:43, 30 अप्रैल 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: जेठ की धूप में तपी हुई<br /> आषाढ़ की फुहारों में भीगकर<br /> कार्तिक और …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जेठ की धूप में तपी हुई
आषाढ़ की फुहारों में भीगकर
कार्तिक और अगहन के फूलों को पार करती हुई
यह घूमती हुई पृथ्‍वी
आज सामने आ गयी है
नये साल की देहरी के

तीन सौ पैंसठ जंगलों
तीन सौ पैंसठ नदियों
तीन सौ पैंसठ दुर्गम घाटियों को पार करने के बाद
आज यह घूमती हुई पृथ्‍वी

यह पृथ्‍वी
टहनी से टपका एक ताजा पका फल
लुढ़ककर आ गया है साबुत
अभी-अभी लिपे हुए आंगन में
प्रथम दिवस की चौखट के सामने
तीन सौ पैंसठ पत्‍थरों से बचकर

न जाने कितने लोगों का भय रेंग रहा है इस पर
न जाने कितने नगरों-गावों का रक्‍त
बह रहा है अभी भी
न जाने कितनी चीखों से
दहल गयी है यह पृथ्‍वी

ऐसे मे कितना सुखद है यह देखना
कि तीन सौ पैंसठ घावों से भरी यह पृथ्‍वी
आज जब सामने आयी है
नये साल के प्रथम दिवस की चौखट के
इसके माथे पर चमक रहा है नया सूर्य

इसकी नदियों का जल
हमारे जनों के हाथों में
अर्ध्‍य के लिए उठा है सूर्य की ओर

और ठीक वहीं
जहां पिछले अंधेरों को पार करने के बाद
ठिठकी खड़ी है यह पृथ्‍वी
दिन की टहनियों पर
फूले हैं गुड़हल के फूल.