भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नदी थी कश्तियाँ थीं चाँदनी थी झरना था / शहराम सर्मदी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:39, 8 अगस्त 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शहराम सर्मदी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नदी थी कश्तियाँ थीं चाँदनी थी झरना था
गुज़र गया जो ज़माना कहाँ गुज़रना था

मुझी को रोना पड़ा रतजगे का जश्न जो था
शब-ए-फ़िराक़ वो तारा नहीं उतरना था

मिरे जलाल को करना था ख़म सर-ए-तस्लीम
तिरे जमाल का शीराज़ा भी बिखरना था

तिरे जुनून ने इक नाम दे दिया वर्ना
मुझे तो यूँ भी ये सहरा उबूर करना था

इक ऐसा ज़ख़्म कि जिस पर ख़िज़ाँ का साया न था
इक ऐसा पल कि जो हर हाल में ठहरना था