भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नमक / आग्नेय

Kavita Kosh से
गंगाराम (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:18, 18 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आग्नेय |संग्रह=मेरे बाद मेरा घर / आग्नेय }} <Poem> उसन...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उसने कहा :
तुम पृथ्वी का नमक बनो
वह हाड़-माँस का पुतला बना रहा
किसी ने सुई की नोंक चुभा दी
करता रहा वह अरण्य-रुदन
काल-रात्रि के भय से।
किसी ने गुदगुदा दिया
खिलखिलता रहा नंदन-वन जैसा।
कभी किसी ने बैठा दिया रत्न-जड़ित सिंहासन पर
अपनी बत्तीसी दिखा अकड़ गया कंकाल-सा
किसी ने गिरा दिया, रौंद दिया गया चींटियो-सा।
उसने फिर कहा :
तुम बन नहीं सके
किसी के भोजन का स्वाद।
अब जलते रहो अनन्त काल तक
दावानल में
जलता है जैसा सूर्य अनादि काल से।