भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नवबहार लेकर परदेसी कंत आया क्या / सुजीत कुमार 'पप्पू'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:32, 2 अप्रैल 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुजीत कुमार 'पप्पू' |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नवबहार लेकर परदेसी कंत आया क्या,
बाग-बाग लाली छाई वसंत आया क्या।

कूक-कूक कोयल भी गा रही है कूक्कू कू,
झर्र-झर्र पतझड़ का जैसे अंत आया क्या।

फूल-फूल मुस्काया डाल-डाल इतराया,
ओढ़ सतरंगी चोला कोई संत आया क्या।

झूम-झूम भौंरे भी गुनगुना रहे हैं कुछ,
रंग लूटने केसरिया महंत आया क्या।

कुंज-कुंज उद्भावन दिग्दिगंत मनभावन,
सांवली धरा पर शोभा अनंत आया क्या।