"नवम्बर, मेरा गहवारा / अली सरदार जाफ़री" के अवतरणों में अंतर
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जब कोई शाख़े-सियाह-रंग पे जब चाँद खिले | जब कोई शाख़े-सियाह-रंग पे जब चाँद खिले | ||
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मिरी आँखों ने पहली बार सूरज की सुनहरी रौशनी देखी | मिरी आँखों ने पहली बार सूरज की सुनहरी रौशनी देखी | ||
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कि वो इक माँ का चेहरा था | कि वो इक माँ का चेहरा था | ||
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मुझे सूरज ने पाला | मुझे सूरज ने पाला |
15:28, 25 मई 2009 का अवतरण
नवम्बर, मेरा गहवारा
(आपबीती और जगबीती)
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रख़्से-तख़्लीक़<ref>सृष्टि का नृत्य</ref>
जब कहीं फूल हँसे
जब कोई तिफ़्ल सरे-राह मिले
जब कोई शाख़े-सियाह-रंग पे जब चाँद खिले
दिल ये कहता है हसीं है दुनिया
चीथड़ों ही में सही माह-जबीं है दुनिया
दस्ते-सैयाद भी है बाज़ुए-जल्लाद भी है
रक़्से-तख़्लीके़-जहाने-गुज़राँ जारी है
खोल आँख, ज़मीं देख, फ़लक देख, फ़ज़ा देख
नवम्बर, मेरा गहवारा है, ये मेरा महीना है
इसी माहे-मुनव्वर<ref>उजालों से भरा हुआ महीना</ref> में
मिरी आँखों ने पहली बार सूरज की सुनहरी रौशनी देखी
मिरे कानों में पहली बार इन्सानी सदा आयी
मिरे तारे-नफ़स में जुम्बिशे-बादे-सबा आयी
मशामे-रूह में
मिटी की ख़ुशबू फूल बनकर मुस्कुरा उट्ठी
लहू ने गीत गाया
शमे-हस्ती जगमगा उट्ठी
यह लम्हा-लम्हःए-मिलादे-आदम था
मैं सत्तर साल पहले इस तमाशगाहे़-आलम में
इक आफ़ाक़ी<ref>आकाशीय</ref> खिलौना था
हवा के हाथ सहलाते थे मेरे नर्म बालों को
मिरी आँखों में रातें नींद का काजल लगाती थीं
सहर की पहली किरनें चूमती थीं मेरी पलकों को
मुझे चाँद और तारे मुस्कुराकर देखते थे
मौसमों की ग़र्दिशें झूला झुलाती थीं
भरी बरसात में बारिश के छींटे
गर्मियों में लू के झोंके
मुझसे मिलने के लिए आते
वो कहते थे हमारे साथ आओ
चल के खेलें बाग़ो-सहरा
मिरी माँ अपाने आँचल में छुपा लेती थी नन्हे से खिलौनों को
मिरी हैरत की आँखें
उस महब्बत से भरे चेहरे को तकती थीं
जिस आईने में पहली बार मैंने
अपना चेहरा आप देखा था
वो चेहरा क्या था
सूरज था, ख़ुदा था या पयम्बर था
वो चेहरा जिससे बढ़कर ख़ूबसूरत
कोई चेहरा हो नहीं सकता
कि वो इक माँ का चेहरा था
जो अपने दिल के ख़्वाबों, प्यार की किरनों से रौशन था
वो पाकीज़ा मुक़द्दस सीनःए-ज़र्रीं<ref>स्वर्णमय</ref>
वह उसमें दूध की नहरें
वह मौज़े-कौसरो-तसनीम<ref>स्वर्ग की नहरें</ref> थी
या शहदो-शबनम थीं
उन्हीं की चन्द बूँदें सिह-हर्फ़ो-जादुए-लफ़्ज़ो-बयाँ<ref>भाषा और अभिव्यक्ति का जादू</ref> बनकर
मिरे होंटों से खुशबू-ए-ज़बाँ बनकर
सरे-लौहो-क़लम<ref>लिखने की तख़्ती और क़लम के ऊपर</ref> आती हैं तो शमशीर की सूरत चमकती हैं
हसीनों के लिए वह ग़ाज़ःए-रुख़सारो-आरिज़ हैं
खनकती चूड़ियों, बजती हुई पायल को इक आहंग देती है
ज़मीं की गर्दिशों, तारीख़ की आवाज़े-पा में ढलती जाती है।
जो अब मेरी ज़बाँ है
मेरे बचपन में वह मेरी माँ की लोरी थी
यह लोरी इक अमानत है
मेरा हर शे’र अब इसकी हिफ़ाज़त की ज़मानत है
इक़राअ़<ref>पढो़</ref>-अल्लमा-बिलक़लम
मिरा पहला सबक इक़राअ़
है तहसीने-क़लम<ref>क़लम की प्रशंसा</ref> जिसमें
है तक़रीमे-क़लम जिसमें
क़लम तहरीके-रब्बानी
क़लम तख़्लीके़-इन्सानी
क़लम तहज़ीबे-रूहानी
क़लम ही शाखे़-तूबा<ref>एक ख़ुशबूदार पेड़</ref> भी है अंगुश्ते-हिनाई भी
मिरे हाथों में आकर रक़्स करती है
हज़ारों दाइरों में चाँद और सूरज की मेहराबें
दरख़शां इल्म और हिक़मत की कन्दीलें
हिलाले-नौ का सीना माहे-क़ामिल का ख़ज़ीना है
मिरी उँगली ने पहले ख़ाक के सीने पे हर्फ़े-अव्वलीं लिक्खा
फिर उसके बाद तख़्ती पर क़लम का नक़्शे-सानी था
क़लम अंगुश्ते-इन्सानी का जलवा है
उरूज़े-आदमे-ख़ाकी़<ref>नश्वर मनुष्य</ref> का दिलक़श इस्तिआरा<ref>प्रतीक</ref> है
फ़ितरत की फ़ैयाज़ियाँ
मुझे सूरज ने पाला
चाँद की किरनों ने नहलाया
हर इक शय मुझसे थी मानूस
मुझसे बात करती थी
दरख़्तों की ज़बाँ
चिडि़यों के नग़्मे मैं समझता था
हवा में तितलियाँ परवाज़ करती थीं