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"नहीं जी रहे अगर देश के लिए / उदयप्रताप सिंह" के अवतरणों में अंतर

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01:19, 21 मई 2011 के समय का अवतरण

चाहे जो हो धर्म तुम्हारा चाहे जो वादी हो ।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।‍‍‌

जिसके अन्न और पानी का इस काया पर ऋण है
जिस समीर का अतिथि बना यह आवारा जीवन है
जिसकी माटी में खेले, तन दर्पण-सा झलका है
उसी देश के लिए तुम्हारा रक्त नहीं छलका है

तवारीख के न्यायालय में तो तुम प्रतिवादी हो ।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।

जिसके पर्वत खेत घाटियों में अक्षय क्षमता है
जिसकी नदियों की भी हम पर माँ जैसी ममता है
जिसकी गोद भरी रहती है, माटी सदा सुहागिन
ऐसी स्वर्ग सरीखी धरती पीड़ित या हतभागिन ?

तो चाहे तुम रेशम धारो या पहने खादी हो ।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।
 
जिसके लहराते खेतों की मनहर हरियाली से
रंग-बिरंगे फूल सुसज्जित डाली-डाली से
इस भौतिक दुनिया का भार ह्रदय से उतरा है
उसी धरा को अगर किसी मनहूस नज़र से खतरा है

तो दौलत ने चाहे तुमको हर सुविधा लादी हो ।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।

अगर देश मर गया तो बोलो जीवित कौन रहेगा?
और रहा भी अगर तो उसको जीवित कौन कहेगा?
माँग रही है क़र्ज़ जवानी सौ-सौ सर कट जाएँ
पर दुश्मन के हाथ न माँ के आँचल तक आ पाएँ

जीवन का है अर्थ तभी तक जब तक आज़ादी हो ।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।

चाहे हो दक्षिण के प्रहरी या हिमगिरी वासी हो
चाहे राजा रंगमहल के हो या सन्यासी हो
चाहे शीश तुम्हारा झुकता हो मस्जिद के आगे
चाहे मंदिर गुरूद्वारे में भक्ति तुम्हारी जागे

भले विचारों में कितना ही अंतर बुनियादी हो ।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।