भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नारी (दोहे) / गरिमा सक्सेना

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:05, 8 मार्च 2021 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नारी-

सृष्टि नहीं नारी बिना, यही जगत आधार।
नारी के हर रूप की, महिमा बड़ी अपार।।

जिस घर में होता नहीं, नारी का सम्मान।
देवी पूजन व्यर्थ है, व्यर्थ वहाँ सब दान।।

लक्ष्मी, दुर्गा, शारदा, सब नारी के रूप।
देवी सी गरिमा मिले, नारी जन्म अनूप।।

कठिन परिस्थिति में सदा, लेती खुद को ढाल।
नारी इक बहती नदी, जीवन करे निहाल।।

नारी, नारी का नहीं, देती आयी साथ।
शायद उसका इसलिए, रिक्त रहा है हाथ।।

खुशियों का गेरू लगा, रखती घर को लीप।
नारी रंग गुलाल है, दीवाली का दीप।।

खुशियों को रखती सँजो, ज्यों मोती को सीप।
नारी बंदनवार है, नारी संध्या दीप।।

तार-तार होती रही, फिर भी बनी सितार।
नारी ने हर पीर सह, बाँटा केवल प्यार।।

पायल ही बेड़ी बनी, कैसी है तकदीर।
नारी का क़िरदार बस, फ्रेम जड़ी तस्वीर।।

नारी को अबला समझ, मत कर भारी भूल।
नारी इस संसार में, जीवन का है मूल।।

है सावित्री सी सती, बनती पति की ढाल।
पतिव्रत नारी सामने, घुटने टेके काल।।

नारी मूरत त्याग की, प्रेम दया की खान।
करना जीवन में सदा, नारी का सम्मान।।

सूना है नारी बिना, सारा यह संसार।
वह मकान को घर करे, देकर अपना प्यार।।

नारी तू अबला नहीं ,स्वयं शक्ति पहचान।
अपने हक को लड़ स्वयं, तब होगा उत्थान।।

क्यों नारी लाचार है, लुटती क्यों है लाज।
क्या पुरुषत्व विहीन ही, हुई धरा ये आज।।

जब तक वह सहती रही, थी अबला लाचार।
ज्यों ही वह कहने लगी, बनी अनल, अंगार।।

संस्कृति की वाहक यही, इससे रीति- रिवाज।
नारी ही निर्मित करे, सुंदर सभ्य समाज।।

मन के जख़्मों की कहो, कहाँ लगाऊँ हाँक।
पत्नी ने यह सोचकर लिया चोट को ढाँक।।

दिन भर वह खटती रही, हुई सुबह से शाम।
घर आकर पति ने कहा, क्या करती हो काम?

कुक, टीचर, आया कभी , करे नर्स का रोल।
फिर भी क्यों घर में नहीं, नारी का कुछ मोल।।

नयी वधू के स्वप्न नव, अभी न पाये झूम।
औ दहेज की आग में, झुलस गयी मासूम।।

नारी, अबला ही रही, बदला कहाँ समाज।
अब भी लगती दाँव पर, द्रोपदियों की लाज।।

'साँप-नेवले'- सा हुआ, सास- बहू का प्यार।
छोटी सी तकरार में, टूट गया परिवार।।

अग्निपरीक्षा कब तलक, लेगा सभ्य समाज।
नारी की खातिर नहीं, बदला कल या आज।।

जयद्रथ, दु:शासन खड़े, गली-गली में कंस।
द्रौपदियाँ लाचार हैं, कौन करे विध्वंस।।

पहनावा ही था ग़लत, किया सभी ने सिद्ध।
चिड़िया रोती रह गई, बरी हो गये गिद्ध।।

हुआ पराया मायका, अपना कब ससुराल।
किस घर को अपना कहूँ, नारी करे सवाल।।

बनें आर्थिक रूप से, नारी सभी सशक्त।
बदलेगा यह देश तब, यही कह रहा वक्त।।

ओ नारी! सुन तू नहीं, एक उतारा वस्त्र।
पा ले हर अधिकार को, उठा स्वयं अब अस्त्र।।

घर कोई उजड़े नहीं, बदलें अगर विचार।
बहुओं को भी मिल सके, बेटी जैसा प्यार।।

छ: गज लम्बी साड़ियाँ, चुनरी, बुरका, सूट।
बचा कहाँ पाये मगर, कोमल तन की लूट।।

सभी तितलियों ने स्वयं, नोंचीं अपनी पाँख।
जब से जहरीली हुई, उपवन में हर आँख।।

जाति धर्म के जोड़ में, पीड़ित है लाचार।
अपराधी को मिल गये, ढेरों पैरोकार।।

नारी संज्ञा सँग जुड़ें, प्रत्यय औ उपसर्ग।
पर अपने ही अर्थ का, रहे उपेक्षित वर्ग।।

ज्यों ही फैला गाँव में, कोई भीषण रोग।
नई बहू मनहूस है, लगा दिया अभियोग।।