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निजी पाप की मैं स्वयं को सजा दूँ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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निजी पाप की मैं स्वयं को सज़ा दूँ।
तू गंगा है पावन रहे ये दुआ दूँ।

न दिल रेत का है न तू कोई अक्षर,
जिसे आँसुओं की लहर से मिटा दूँ।

बहुत पूछती है ये तेरा पता, पर,
छुपाया जो ख़ुद से, हवा को बता दूँ?

यही इन्तेहाँ थी मुहब्बत की जानम,
तुम्हारे लिए ही तुम्हीं को दगा दूँ।

बिखेरी है छत पर यही सोच बालू,
मैं सहरा का इन बादलों को पता दूँ।