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निरापद / महेन्द्र भटनागर

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नयी रोशनी है,

नयी रोशनी है !

निरापद हुआ आज जीवन,

निराशा पुरावृत विसर्जन !

विषादित-युगों की निशा भी गगन से

अंधेरा उठाकर भगी इस जलन से।

महाबल विपुल अब भुजाएँ उठाकर

विरोधी सभी ताक़तों को

गरजकर बिगड़ क्रुद्ध

ललकारता है !

गुनाहों के पर्वत

पिघल कर धँसे जा रहे हैं !

(सुमन शुष्क उपवन में

खिलते चले जा रहे हैं !)

बदलते जगत पर

पुरातन गलित नीति

हरगिज़

नहीं थोपनी है !

नयी रोशनी है !

1949