"निर्मम कामनाएँ छलिया प्रेमी की / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर
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अधखुले कंपित अधरों से, | अधखुले कंपित अधरों से, | ||
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मंद-मुस्कुराते नयनाभिराम के साथ, | मंद-मुस्कुराते नयनाभिराम के साथ, | ||
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प्रफुल्लित भावनाओं में बहकर, | प्रफुल्लित भावनाओं में बहकर, | ||
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हमारी हथेलियों को थाम अपने हाथ | हमारी हथेलियों को थाम अपने हाथ | ||
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उसने हमसे चाहा था-एक मधुर चुंबन। | उसने हमसे चाहा था-एक मधुर चुंबन। | ||
कुछ विस्मित फैली हुई आँखों से, | कुछ विस्मित फैली हुई आँखों से, | ||
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उन्हें निहार रहे थे हम, | उन्हें निहार रहे थे हम, | ||
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हर्षमिश्रित, आह्लादित मनोभावों से, | हर्षमिश्रित, आह्लादित मनोभावों से, | ||
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कुछ लाजयुक्त, सिमटे हुए से, | कुछ लाजयुक्त, सिमटे हुए से, | ||
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सीमित सीमाओं के बन्धन। | सीमित सीमाओं के बन्धन। | ||
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कामनाएँ थी असीम, अनन्त...सुख की चाह में, | कामनाएँ थी असीम, अनन्त...सुख की चाह में, | ||
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ये क्या माँगा, व्यक्त किया, अपरिभाषित आशाएँ, | ये क्या माँगा, व्यक्त किया, अपरिभाषित आशाएँ, | ||
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अव्यक्त को अभिव्यक्त करके, | अव्यक्त को अभिव्यक्त करके, | ||
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एक कंपन, आनन्द स्फुरण, | एक कंपन, आनन्द स्फुरण, | ||
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अनजाने ही तुम छोड़ गए चिंतन। | अनजाने ही तुम छोड़ गए चिंतन। | ||
जहाँ कल्पनाओं के अनन्त नभ में, | जहाँ कल्पनाओं के अनन्त नभ में, | ||
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हम भी भरना चाहते थे उड़ानें, | हम भी भरना चाहते थे उड़ानें, | ||
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जीवन की चाह थी कुछ ठहरने की, | जीवन की चाह थी कुछ ठहरने की, | ||
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नीरव, सूने मन की कली खिलना चाहती थी, | नीरव, सूने मन की कली खिलना चाहती थी, | ||
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एक अभूतपूर्व दीर्घ स्मारित क्षण। | एक अभूतपूर्व दीर्घ स्मारित क्षण। | ||
दो पक्षी उड़कर विस्तृत परों से, | दो पक्षी उड़कर विस्तृत परों से, | ||
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प्रेमालाप, विहंगम दिशाओं में, | प्रेमालाप, विहंगम दिशाओं में, | ||
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स्वच्छन्द नीलिमामय गगन में, | स्वच्छन्द नीलिमामय गगन में, | ||
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रहित सीमाविहीन कालखंड के भय से | रहित सीमाविहीन कालखंड के भय से | ||
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संग-संग आनन्दित... विचरण। | संग-संग आनन्दित... विचरण। | ||
कुछ ऐसा था यह हमारे लिए, | कुछ ऐसा था यह हमारे लिए, | ||
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एक बूढ़ा वृक्ष जैसे, | एक बूढ़ा वृक्ष जैसे, | ||
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धरती के गर्भ में, | धरती के गर्भ में, | ||
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अंकुरित होकर फिर से, | अंकुरित होकर फिर से, | ||
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शैशव का कर रहा हो आलिंगन। | शैशव का कर रहा हो आलिंगन। | ||
गर्मी के झुलसे दिनों से लेकर, | गर्मी के झुलसे दिनों से लेकर, | ||
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सर्द-कंपकंपाती रातों तक, | सर्द-कंपकंपाती रातों तक, | ||
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कितने ही कटु-संघर्ष, | कितने ही कटु-संघर्ष, | ||
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घृणित पराजय और धुत्कार, | घृणित पराजय और धुत्कार, | ||
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मन से भूल गए हम उस क्षण। | मन से भूल गए हम उस क्षण। | ||
एक पूरे यात्रा-वृत्तान्त में | एक पूरे यात्रा-वृत्तान्त में | ||
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एक दीर्घ ठहराव से, | एक दीर्घ ठहराव से, | ||
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मचलकर आशाओं को मन ने, | मचलकर आशाओं को मन ने, | ||
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बाँध दिया उद्वेगों ने, | बाँध दिया उद्वेगों ने, | ||
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रिश्तों की परिभाषा का नहीं था बंधन। | रिश्तों की परिभाषा का नहीं था बंधन। | ||
चाहते तो हम भी यही थे, | चाहते तो हम भी यही थे, | ||
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किंतु अव्यक्त भावों के सिंधु में, | किंतु अव्यक्त भावों के सिंधु में, | ||
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मोती चटख रहा था, | मोती चटख रहा था, | ||
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सीपी के मुख में, | सीपी के मुख में, | ||
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बूढे़ वृक्ष का नवांकुर में परिवर्तन। | बूढे़ वृक्ष का नवांकुर में परिवर्तन। | ||
हिचकियाँ ले रहा था, | हिचकियाँ ले रहा था, | ||
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गरिमामय हिमालय-मैदान में, | गरिमामय हिमालय-मैदान में, | ||
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पिघलकर आना चाहती थी, | पिघलकर आना चाहती थी, | ||
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गंगा सागर की बाहों में, | गंगा सागर की बाहों में, | ||
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क्या कहें? विधि का विधान या सामाजिक प्रचलन। | क्या कहें? विधि का विधान या सामाजिक प्रचलन। | ||
बर्फ—सी जीभ सूनी आँखें, | बर्फ—सी जीभ सूनी आँखें, | ||
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उद्वेलित द्रवित होकर अश्रुजल में, | उद्वेलित द्रवित होकर अश्रुजल में, | ||
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अपने जीवन के उतार-चढ़ाव के, | अपने जीवन के उतार-चढ़ाव के, | ||
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अत्यंत जटिल कहने थे, | अत्यंत जटिल कहने थे, | ||
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करुण क्रन्दन-रुदन भरे कथन। | करुण क्रन्दन-रुदन भरे कथन। | ||
किंतु तुम नहीं चाहते थे सुनना, | किंतु तुम नहीं चाहते थे सुनना, | ||
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नारीरूप में प्रशंसा करके छोड़ देना, | नारीरूप में प्रशंसा करके छोड़ देना, | ||
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कुछ मुस्कुराकर टाल देना, | कुछ मुस्कुराकर टाल देना, | ||
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केवल काया का मोहपाश बुनना, | केवल काया का मोहपाश बुनना, | ||
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संभवतः यही था तुम्हारा चलन। | संभवतः यही था तुम्हारा चलन। | ||
कुछ घृणा से मुस्कुराई मैं, | कुछ घृणा से मुस्कुराई मैं, | ||
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विस्मित होकर रह गई मैं, | विस्मित होकर रह गई मैं, | ||
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तुम्हारी इन चिर-परिचित कामनाओं पर, | तुम्हारी इन चिर-परिचित कामनाओं पर, | ||
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नारी-मन को छलने की भावनाओं पर। | नारी-मन को छलने की भावनाओं पर। | ||
निर्मम छलिया प्रेमी की देहासक्ति- | निर्मम छलिया प्रेमी की देहासक्ति- | ||
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काया को बाँहों में समेटने की, | काया को बाँहों में समेटने की, | ||
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सागर को अंजुलियों में भरने की, | सागर को अंजुलियों में भरने की, | ||
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और रेत को मुठ्ठी में भरने की, | और रेत को मुठ्ठी में भरने की, | ||
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ज्वार-भाटा को चित्रित करने की, | ज्वार-भाटा को चित्रित करने की, | ||
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रागों से मेघों को बरसाने की। | रागों से मेघों को बरसाने की। | ||
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कामनाएँ! अनन्त कल्पित कामनाएँ! | कामनाएँ! अनन्त कल्पित कामनाएँ! | ||
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01:13, 31 मई 2021 के समय का अवतरण
अधखुले कंपित अधरों से,
मंद-मुस्कुराते नयनाभिराम के साथ,
प्रफुल्लित भावनाओं में बहकर,
हमारी हथेलियों को थाम अपने हाथ
उसने हमसे चाहा था-एक मधुर चुंबन।
कुछ विस्मित फैली हुई आँखों से,
उन्हें निहार रहे थे हम,
हर्षमिश्रित, आह्लादित मनोभावों से,
कुछ लाजयुक्त, सिमटे हुए से,
सीमित सीमाओं के बन्धन।
कामनाएँ थी असीम, अनन्त...सुख की चाह में,
ये क्या माँगा, व्यक्त किया, अपरिभाषित आशाएँ,
अव्यक्त को अभिव्यक्त करके,
एक कंपन, आनन्द स्फुरण,
अनजाने ही तुम छोड़ गए चिंतन।
जहाँ कल्पनाओं के अनन्त नभ में,
हम भी भरना चाहते थे उड़ानें,
जीवन की चाह थी कुछ ठहरने की,
नीरव, सूने मन की कली खिलना चाहती थी,
एक अभूतपूर्व दीर्घ स्मारित क्षण।
दो पक्षी उड़कर विस्तृत परों से,
प्रेमालाप, विहंगम दिशाओं में,
स्वच्छन्द नीलिमामय गगन में,
रहित सीमाविहीन कालखंड के भय से
संग-संग आनन्दित... विचरण।
कुछ ऐसा था यह हमारे लिए,
एक बूढ़ा वृक्ष जैसे,
धरती के गर्भ में,
अंकुरित होकर फिर से,
शैशव का कर रहा हो आलिंगन।
गर्मी के झुलसे दिनों से लेकर,
सर्द-कंपकंपाती रातों तक,
कितने ही कटु-संघर्ष,
घृणित पराजय और धुत्कार,
मन से भूल गए हम उस क्षण।
एक पूरे यात्रा-वृत्तान्त में
एक दीर्घ ठहराव से,
मचलकर आशाओं को मन ने,
बाँध दिया उद्वेगों ने,
रिश्तों की परिभाषा का नहीं था बंधन।
चाहते तो हम भी यही थे,
किंतु अव्यक्त भावों के सिंधु में,
मोती चटख रहा था,
सीपी के मुख में,
बूढे़ वृक्ष का नवांकुर में परिवर्तन।
हिचकियाँ ले रहा था,
गरिमामय हिमालय-मैदान में,
पिघलकर आना चाहती थी,
गंगा सागर की बाहों में,
क्या कहें? विधि का विधान या सामाजिक प्रचलन।
बर्फ—सी जीभ सूनी आँखें,
उद्वेलित द्रवित होकर अश्रुजल में,
अपने जीवन के उतार-चढ़ाव के,
अत्यंत जटिल कहने थे,
करुण क्रन्दन-रुदन भरे कथन।
किंतु तुम नहीं चाहते थे सुनना,
नारीरूप में प्रशंसा करके छोड़ देना,
कुछ मुस्कुराकर टाल देना,
केवल काया का मोहपाश बुनना,
संभवतः यही था तुम्हारा चलन।
कुछ घृणा से मुस्कुराई मैं,
विस्मित होकर रह गई मैं,
तुम्हारी इन चिर-परिचित कामनाओं पर,
नारी-मन को छलने की भावनाओं पर।
निर्मम छलिया प्रेमी की देहासक्ति-
काया को बाँहों में समेटने की,
सागर को अंजुलियों में भरने की,
और रेत को मुठ्ठी में भरने की,
ज्वार-भाटा को चित्रित करने की,
रागों से मेघों को बरसाने की।
कामनाएँ! अनन्त कल्पित कामनाएँ!