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न जाने क्या उसे सूझा क़लम कर दी ज़बां मेरी / कांतिमोहन 'सोज़'

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न जाने क्या उसे सूझा क़लम कर दी ज़बां मेरी।
उसे भी ख़ामुशी साबित हुई राहतरसां<ref>शान्ति पहुँचानेवाली</ref> मेरी।।

मिटा अब तूतियों<ref>एक चिड़िया</ref> को अंजुमों<ref>तारा</ref> को आबशारों<ref>झरना</ref> को
वगरना<ref>वरना</ref> लाज़िमी सुनना पड़ेगी दास्तां मेरी।

गुलों में बुलबुलों में कोह<ref>पर्वत</ref> में मौजों में दरिया में
ग़रज़ हर शै में है पिनहा<ref>निहित</ref> हयाते-जाविदां<ref>अमर जीवन</ref> मेरी।

ज़मीं का ज़र्रा-ज़र्रा नाचता है मेरे जौहर से
मैं ख़ुद हैरान हूं इस दरजा क़ूवत थी कहां मेरी।

मुझे इस हाल में करके तुम्हें कुछ तो हिजाब आया
चलो मलबूस<ref>मेरी नग्नता ने तुम्हें ढक दिया</ref> तुमको कर गईं उरियानियां मेरी।

मेरी शीरींबयानी<ref>मीठा बोलना</ref> से भी होती है खलिश तुमको
अभी देखी कहां है तल्ख़िये-तर्ज़े-बयां<ref>बयान का तीखापन</ref> मेरी।

समझ पाई किसी दिन सोज़ को दुनिया तो जानेगी
क़लम से अर्ज़ करने में भी कटती थी ज़बां मेरी।।

शब्दार्थ
<references/>