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पता नहीं कैसे / अज्ञेय

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पता नहीं कैसे, तुम मेरे बहुत समीप आ पायी थीं...और अस्थायी अत्यन्त सान्निध्य में मैं काँप गया था, किन्तु तुम कितनी जल्दी परे चली गयीं?
मेरा जीवन क्या हो सकता है वह देख कर मैं फिर अपने पुराने भव में लौट आया हूँ। मुझे वह प्राण-सखा नहीं मिला।
कितना अच्छा होता, अगर ये मित्र भी न मिलते, अगर इस आंशिक पूर्ति से वह अनन्त आपूर्ति की संज्ञा अधिक जाग्रत न हो पाती!

दिल्ली जेल, 1 अगस्त, 1932