भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पता नहीं वह तुमसे / हरिवंश प्रभात

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:51, 17 नवम्बर 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिवंश प्रभात |अनुवादक= |संग्रह=छ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पता नहीं है वह तुमसे नाराज़ क्यों है,
जब तुम दोनों नासमझ हो, फिर लाज क्यों है।

तुमने हमें प्रणाम किया, हमने भी राम-राम किया,
हमने जब (तुम्हारा) नाम पूछा, होते नाराज़ क्यों हो।

उसे विद्वान होने का अहम है, गंभीरी बनावटी है,
हम पूछते हैं कि आख़िर कोढ़ में खाज क्यों है।

हम उस पर हँसते हैं, वह हमपर भी हँसता है,
अब ज़रा बताओ फिर दुश्मन बना समाज क्यों है।

सुना है ताज़वाले को ही मुमताज मिला करती है,
फिर वह बिना बेग़म के ही सरताज़ क्यों है।

कभी बलवान के भरोसे ना भिड़ जाना किसी से,
फिर पूछना मत कि हम पर गिरा गाज़ क्यों है।

पढ़ी लिखी बीवी से आजकल सौहर तबाह है,
फिर बताओ परिवार में ऐसा स्वराज क्यों है।

बजते हैं सब गीत तुम्हारे, तुम भी अच्छा गाते हो,
मिलता नहीं गाने से मगर तेरा साज़ क्यों है।

‘प्रभात’ किसी को मिलना हो तो शाम को आ जाए,
पके आम पर देखना आता ऋतुराज क्यों है।