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पहला अतिवादी / कुमार सुरेश

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सिद्धांतों, विचारों, संस्कारों की चाशनी में लपेटा गया उसे
कर्मकांडों की धूप में गरमाया भी गया आचार की तरह
तोता रटंत में माहिर था वह
बूढ़े तोतों ने रटाया भी खूब
 
उसे दी गई आठों पहर (बिला नागा) दवाईयाँ बहुत सारी
मीठी, जानलेवा नशीली
उस लोक की, सातवें आसमान की
 
इतनी रोशनी चमकाई गई उस पर
कि चमकने लगा उसका शरीर
बिल्ली की आँख कि तरह
ढका गया उसे अब सजीली वर्दियों, अजीब निशानों से
उसकी रेंक भी की गई निश्चित
 
पवित्र दिनों में! होती रही उसकी भेंट
(दिन अपवित्र भी होते हैं)
देवताओं, सिद्धों, पैगम्बरों से
निखर गया उसका रूप
चेहरे पर चमकने लगी रंगीन धूप
सबको सुधारने को अब तैयार
तर्क करता फर्राटेदार
कहता खासो-आम से
बामुलाहिजा होशियार
 
सत्य वही चाशनी है जिसमें मुझे लपेटा गया
धर्म वही कर्मकांड जो सिखाया गया मुझे
ज्ञान वही शब्द जो रटाये गए मुझे
जो अन्यथा करे विश्वास
छोड़ दे अपने कल्याण की हर आस
 
इस तरह तैयार होते हैं अतिवादी
हर जगह हर काल में