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पाँच क्षणिकाएँ / राजुल मेहरोत्रा

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वैसे तो मै अश्लील कहानी वाली पुस्तक हूँ
पर तुम जब जब मुझको छूती हो,
मै गीता हो जाता हूँ ।
      


यह दुनिया
हमीं दोने के सहारे चल रही है
मेरी ज़िन्दगी तुम्हारी दाल
साथ साथ गल रही है ।



हमारी आज़ादी ऐसा सपना है
जिसे हमारे बाप दादाओं ने
उचक कर देखा था,
और हम
मुड़ कर देख रहे हैँ ।




जिन गलियोँ मे कभी
खाटेँ कसी जाती थीँ
वहां अब आवाज़ें कसी जा रही हैं,
जिन्हे हम कोयले से रंगते थे
वे अब खुद रंग ला रही हैं।
बचपन मे जहां हम लोग
उछलते कूदते थे
सोंधी मिट्टी खाते थे
कंकड कँकड को चूमते थे
जहाँ हम लोग
एक दूसरे के आँसू पोछते थे,
अब उन्ही गलियोँ मे आते जाते
दुआ सलाम भी मुश्किल हो गया है
क्योंकि अब वे ही गलियाँ
जवान होकर
पक्की और चालू हो गईँ हैं ।



लोग कहते हैँ रिटायरमेन्ट के बाद
ऐसा होगा- वैसा होगा
अरे चाहे जैसा भी होगा
मुर्गी... अन्डा ही देगी,
कल्लू की दादी
डन्डा
ही देगी।