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"पाँव रखे बिन मजलूमों पे आगे कौन बढ़ा / 'सज्जन' धर्मेन्द्र" के अवतरणों में अंतर

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मौके की, माहौल और क़ीमत की देरी थी,
 
मौके की, माहौल और क़ीमत की देरी थी,
‘माल बिकाऊ है’ सबकी गर्दन में मिला टँगा।
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‘माल बिकाऊ है’ सबकी गर्दन में टँगा मिला।
  
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भीड़ लगी थी अंधे, बहरे, गूँगे पशुओं की,
 
अपनी जान बचाने में हर एक गया कुचला।
 
अपनी जान बचाने में हर एक गया कुचला।
  
देख न पाया कोई वन में मोर नाचना भी,
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देख न पाया कोई वन में नाचा मोर बहुत,
कौन जानता है जंगल में कितना खून बहा।
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बेईमान हुआ अब ‘सज्जन’ बड़ा क़साई भी,  
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बेईमान हुआ अब ‘सज्जन’ बड़ा क़साई भी,
 
बिका है कोई, कैद में कोई, कोई और कटा।
 
बिका है कोई, कैद में कोई, कोई और कटा।
 
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12:37, 26 फ़रवरी 2024 के समय का अवतरण

पाँव रखे बिन मज़लूमों पे आगे कौन बढ़ा।
मैं हूँ, तुम हो, वो सज्जन हैं या फिर स्वयं ख़ुदा।

मौके की, माहौल और क़ीमत की देरी थी,
‘माल बिकाऊ है’ सबकी गर्दन में टँगा मिला।

भीड़ लगी थी अंधे, बहरे, गूँगे पशुओं की,
अपनी जान बचाने में हर एक गया कुचला।

देख न पाया कोई वन में नाचा मोर बहुत,
कौन जानता है जंगल में कितना ख़ून बहा।

बेईमान हुआ अब ‘सज्जन’ बड़ा क़साई भी,
बिका है कोई, कैद में कोई, कोई और कटा।