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पाँव रखे बिन मजलूमों पे आगे कौन बढ़ा / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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पाँव रखे बिन मज़लूमों पे आगे कौन बढ़ा।
मैं हूँ, तुम हो, वो सज्जन हैं या फिर स्वयं ख़ुदा।

मौके की, माहौल और क़ीमत की देरी थी,
‘माल बिकाऊ है’ सबकी गर्दन में टँगा मिला।

भीड़ लगी थी अंधे, बहरे, गूँगे पशुओं की,
अपनी जान बचाने में हर एक गया कुचला।

देख न पाया कोई वन में नाचा मोर बहुत,
कौन जानता है जंगल में कितना ख़ून बहा।

बेईमान हुआ अब ‘सज्जन’ बड़ा क़साई भी,
बिका है कोई, कैद में कोई, कोई और कटा।