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पागलों के गाँव में एक सरेख स्त्री / सुशील ’मानव’

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मेल मिलाती दुनिया में
बेमेल थी वो
पागल थी वो
दुनिया जहान की ज़ानिब
नँगी देह लिए
जिस गली, जिस घर से गुज़रती
नज़रे फेर मुँह छुपा लेते लोग
तथाकथित सभ्य पुरुष
एक समय में एक ही पुरुष के सामने नँगी होने वाली सभ्य औरतें
जी भर गरियाती सरापतीं
राँड़ कहीं मर-खप भी न जाती कि
इससे पिण्ड छूट जाता

शोहदे कुछ ज़्यादा फैलकर कहते
ये रण्डी पूरे गाँव के लड़कों को बर्बाद करके ही मरेगी

यूँ तो वो कुछ न बोलती किसी को, किसी से
लेकिन, जब कोई हुलकारता
तो वहीं, उसी दर, उसी समय बैठ जाती
अनशन फाने दो-दो घण्टे न उठती
जो कोई न छेड़े तो चुपचाप चलती चली जाती
किसी से कुछ न माँगती-जाँचती
हाँ, कोई कुछ स्वेच्छा से दे देता तो खा लेती चुपचाप
और बिना कोई एहसान लिए-दिए उठकर चल देती
बच्चे पागल-पागल कहकर अद्धा कत्तल फेंक मारते
पर वो, न कभी पलटकर ग़ाली देती
न ढेला-चेंका मारती

जाने कपड़ों से ऐसी क्या चिढ़ थी
कि कोई ज़ोर-ज़बर्दस्ती पहना भी दे
तो अगले ही पल देह से नोच-फाड़कर फेंक देती
जबकि पूरा गाँव कपड़े पहनाने पर आमादा था

मेरी उम्र के किशोर स्त्रीत्व की परिभाषा पढ़ रहे होते जब उसकी नँगी देह से
मैं उसकी आँखों में कुछ ढूँढ़ रहा होता
और वो पलकें गिराकर भरसक छुपाने का जतन करती
कई बार चलते-चलते वो रुककर मुझे देखती अपलक
कई बार मन होता कि मैं उसकी नँगी छातियों में लिपट जाऊँ
कई बार उसकी छातियाँ मुझे ओगरी हुई लगीं
पर मैं डरता रहा
उससे नहीं, उसके लिए

एक रोज़ लोगों को बतियाते सुना
वे रायशुमारी कर रहे थे कि क्यों ना
किसी ट्रक ड्राईवर के हवाले कर दिया जाए
ड्राईवर माने तो ठीक, न माने तो कुछ रुपए-पैसे ले-देकर ही सही
दरअसल वो मेरे गाँव की न थी
न ही किसी के चीन्ह-पहिचान की
कोई चार-पाँच महीने पहले की एक सुबह अचानक
वो गाँव में घूमती दिखी थी, नँगे बदन
किसी ट्रक ड्राईवर ने कहीं और से उठाया था उसे
और नोच निछियाकर
मेरे गाँव के नज़दीकी सड़क पर फेंक गया था शायद
जहाँ से चलकर वो गांव में आ गई
इस बीच न किसी ने उसे हंसते देखा
न रोते, न गाते, न बोलते

उस रोज़ जब उस निचाट दुपहरिया में कोई न था
अमरूद की छाँव के सिवा
भागा-भागा मैं उसकी अलंग लग गया
छातियों में समा लेने से पहले उसके दो नँगे हाथ खुले
और मुझे पहने रहे किसी अनजान भय में
इस तरह कुछ ही पल बीते होंगे कि
मुझे छातियों के मैग्मा में अचानक फुलाव-सा महसूस हुआ
भावनाओं की राख में दबा कोई एहसास ज़िन्दा हुआ हो शायद
जाने कब से भीतर ही भीतर
परत दर परत दबी कुचली अनगिनत चीख़ें चीत्कार की ध्वनि दाब लिए
मन की बर्फ़ीली परतों को तोड़ती मुँह फाड़ बाहर आ गईं

भयँकर और बेहद दारुण चीत्कार
एक अपार वेदना से भरे चीत्कार के बाद वो ज़ार-ज़ार रोने लगी
उसके हाथों की पकड़
मेरे शरीर पर और पुख़्ता होती गई
मेरे कन्धे में जलन पैदा करते टपकते उसके आँसू
पूरे गांव ने पहली बार सुना देखा, उसके आंसू
उसकी रोवाई और वो भयावह दारुण चीत्कार

लोगों ने ज़बर्दस्ती खींचकर विलगाया मुझे उसकी छातियों से
उसके बाद मेरे साथ क्या हुआ ये कविता का विषय नहीं
पर हाँ, मेरी माँ भयभीत हुई
किसी अज्ञात अनहोनी की आशंका से भरकर
उस चीत्कार से डरकर

दो रोज़ बाद की एक सुबह
वो कपड़े में मिली
मरी हुई
पँचनामे के बाद जब पुलिस के लोग लेकर जा रहे थे उसकी लाश
और मैं चीख़कर कहना चाहता था सबसे कि
नँगी कर दो इस औरत को एक आख़िरी बार
एक बार सहलाना चाहता हूँ मैं उसकी नख-दन्त धँसी देह को
एक प्रेमसिक्त चुम्बन का फाहा
धरना चाहता हूँ
उसकी ज़ख़्मी योनि पर ।