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पागल प्रेमी / आरती 'लोकेश'

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मैं हूँ तेरा उन्मादी प्रेमी, तू जलमाल तरंगिणी,
अनभिज्ञ अवस्था से मेरी, कहलाती जग-तरिणी।
एकमार्गी प्रीत का राही, समर्पण ही प्रत्युत्तर,
तू इठलाती वैतरणी, मैं क्षुद्र प्राण नव प्रस्तर।

हृदय के मृदु कांत भाव, उल्लसित विकसित हुए,
स्नेहविंद जल-शीत-कण, स्पर्श से आह्लादित हुए।
अचल से अबोध प्रस्फुटित, नूतन कोमल अंग धरे,
सुरलहरी सम दे संगीत, साधना मुनि की भंग करे।
  
बलखाती लावण्यमयी, हिमार्द्र शिखर से निकली,
उछल-उछल कूद-कूद, नग ढलान से फिसली।
अल्हड़ सी अठखेलियाँ, मगन यौवन को भरती,
राह तेरी मुझ जैसे पत्थर, हो आनंदित पग धरती।

आकर्षित छवि निहार हुआ, मनमौजी की आशा,
विवश गृह त्याग किया, सान्निध्य की अभिलाषा।
छोड़ दिया पितृ गिरिगृह, मातृ धरा का आँचल,
आकांक्षा लिए फिरूँ बनूँ, स्वामिनी का सम्बल।

नहीं ठुकराया मुझे तुमने, सहर्ष किया था स्वीकार,
दुष्कर यात्रा का सहयात्री, कर लिया मुझे अंगीकार।
तेरे रंग रंगने का प्रण ले, ली प्रीत निभाने की सौगंध,
अपना मेरा अणु शेष नहीं, तन रच ली तेरी ही सुगंध।

आनंदमगन मन बहा चला, प्रियतमा ले जाए जहाँ,
अविरल अनवरत प्रवाहित, अपूर्व रीत से वहाँ-वहाँ।
अनवरुद्ध मैं प्रेम पगा, बढ़ता तेरी हर आहट ढंग,
स्वर अपने सहगान किया, बनकर तेरा अंग-प्रत्यंग।
       
आकार मेरे पर हुआ प्रहार, ठोकर खाता साथ चला,
आड़ा-तिरछा होता था जो, गोल-मटोल रूप बदला।
मेरे तन के चुभते कोण, अब सपाट हुए घर्षण पाकर,
अपनी आकृति पर मोहित, मैं धन्य संग अर्षण जाकर।
 
आसक्ति मेरी बहुगुणी हुई, सहसा फिर आघात हुआ,
अनुरक्ति की अनदेखी कर, मुझपर यह पक्षपात किया।
किस अपराध का दंड मिला, किस विरक्ति का प्रतिघात,
अनुराग मेरे का प्रतिफल, त्यक्त किया अब अकस्मात।

अन्य तेरे मुझ जैसे प्रेमी, प्रवाहमान हैं गतिशील हैं,
क्यों मुझे ही तट पर पटका, सब जब अनुगमशील हैं।
सेवा अपनी करने दो, समझ मुझे अदना अनुचर,
नहीं पाओगी ऐसी प्रीत, छान लो जग चर-अचर।

माना तेरे उपकार बहुत हैं, कृतज्ञ सदा गुण गाऊँगा,
अनन्य प्रेमी सिंधु जल में, यदि अंत समाधि पाऊँगा।
दया अगर इस दास पर हो, तो बहा साथ लेती जाना,
सागर को यह मेरा परिचय, कह पागल प्रेमी बतलाना।