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"पाग़ल का गीत / भूपिन / चन्द्र गुरुङ" के अवतरणों में अंतर

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09:27, 25 मई 2017 के समय का अवतरण

देखो, मेरी अंजलि से
जीवन का समुद्र ही चू कर ख़त्म हो गया है ।

मेरे हथेलियों से गिरकर
जीवन का आईना बिखर गया है ।

आँखों के अन्दर ही भूस्खलन में दब गए हैं
बहुत सारे सपने ।
यादों के लिए उपहार बताकर
थोड़े से सपने चुरा कर ले गए थे भूलने वाले
न उन सपनों को उन्होंने अपनी आँखों में सजाया है
और न ही मुझे वापस किया है ।

दाय रिंगाते-रिंगाते उखड आई धुराग्र की तरह
मोड़ों को पार करते-करते
उखड़ा हुआ एक दिल है
न उसको ले जाकर छाती में चिपकाने वाला
कोई प्रेमिल हाथ है
न उसको चिता में फेंकनेवाली
कोई महान आत्मा ।

छाती के अन्दर
छटपटाहट का ज्वालामुखी सक्रिय है
बेचैनी का सुनामी सक्रिय है
मैं सक्रिय हूँ --
सड़क में फैले सपनों के टुकड़ों को जोड़ने के लिए
और आईने में
दुःखों द्वारा खदेड़े जा रहे अपने ही चेहरे को देखने के लिए ।

यह सड़क ही है मेरी पाठशाला
यह सड़क ही है मेरी धर्मशाला
मुझे किस ने पाग़ल बनाया ? ए बटोही भाई !
मेरी बुद्धि -- ईश्वर
या इस कुरूप राज्यसत्ता ने --
मैं कैसे गिरा इस सडक पर
रात को उस घर की छत से जहाँ उतरते हैं तारे

इसी सड़क पर जमा कूड़े में
मैं पाता हूँ मेरे देश की असली सुगन्ध
इसी सड़क पर बहती भीड़ में
मैं देखता हूँ नंगी चल रही अराजकता
यहीं सड़क पर हमेशा मुलाक़ात होती है एक बूढ़े समय से
जो हमेशा हिंसा के बीज बोने में व्यस्त रहता है
इसी सड़क पर हमेशा मुलाक़ात होती है एक जीर्ण देश से
जो हमेशा अपने खोए हुए दिल को ढूँढ़ने मे व्यस्त रहता है ।

विश्वास करो या नहीं
आजकल मुझे यह सड़क
पैरों के निशानों के सँग्रहालय जैसी लगती है ।
मुझे पता है
इसी सड़क से होकर सिंह-दरबार पहुँचकर
कौन कितने मूल्य मे ख़रीदा गया है,
इस सड़क पर चप्पल रगड़ने वालों के पसीने में पिसकर
कितनों ने माथे पे लगाया है पाप का चन्दन,
इस सड़क पर
रोने वालों के आँसू के झूले में झूलकर
किस-किस ने छुई है वैभव की ऊँचाई
वह भी मुझे मालूम है ।

ए बटोही भाई !
आप को भी तो मालूम होना चाहिए
प्रत्येक दिन
कितने देशवासियों के आँसुओं में डूबकर
सूखती हैं इस सड़क की आँखें --
हर रात
कितने नागरिकों के बुरे हाथों से चिरकर
तड़पता है इस सड़क का हृदय

पता नहीं क्या नाम जँचेगा इस सड़क के लिए
यह सड़क
थके पैरों का सँग्रहालय बनी है
हारे हुए इन्सानों के आँसुओं की नदी बनी है
अनावृष्टि में चिरा पड़ा हुआ खेत जैसे
पैने हाथ के द्वारा फटी हुई कलाकृति बना है ।
कंगाल देश का
डरावना एक्स–रे बना है,
रोगी देश को उठा कर दौड़ रही
केवल एम्बुलेन्स बना है ।

घिनौनी उपमाओं में
नाम दें तो भी ठीक है इस सड़क के लिए
पर ए बटोही भाई !
इस देश को जँचता
मैं एक नया नाम सोच रहा हूँ
मैं एक सुन्दर नाम सोच रहा हूँ ।