पाठक से विदा लेते हुए जो कहना है / अजित बरुवा
मुझे लिख जाना होगा
जाने के पहले ही
कुछ बातों को दूसरी बातों के माध्यम से
कुछ बातों को
और कुछ कहने के छल से
लिख जाना होगा
जाने के पहले। क्योंकि
ब्रह्मपुत्र जहाँ आकाश में समाती है
धवल-वर्ण हो, मेघ-गर्जन बन
तूफान के बाद की शान्ति बन,
धुर पच्छिम में जहाँ कौओं का झुण्ड उड़ता-उड़ता ठहर गया है
वहाँ मुझे वह दूत दिख रहा है
जो मुझे बुलाने आया है।
मेरी तैयारी नहीं है। मैं
कामरूप का नक्शा नहीं लाया
कैफ़ियत तलब हो तो कोई बयान भी तैयार नहीं
(द्वैपायन सरोवर में, एक दुर्बल क्षण में
कूद पड़ना – जानते हुए भी धर्माचरण क्यों नहीं किया ?)
मरने के पहले लिख जाना चाहता था
सत्य के प्रति अपनी उदासीनता की बात
(पूर्ण सत्य पूर्णता को ही पता होता है)
बस अन्तर में खुदे पोखर मे डुबकी लगाते
मुँह में फँसे कुमुद-मूल को मुँह से निकाल फेकना
अकेला मेरा सत्य
उन गन्धों की बात
उस अपने अंदर ही खो जाने की बात
समय के उन छोटे-मझोले कोष्ठकों में
ठुड्ढी रख बैठने की बात
वही ‘अब’ के आईने में
‘तब’ की किरनों को केंद्रित करने की बात
— जो पूरा निज है मेरा, अर्थात् सम्पूर्ण मिथ्या।
उसी जादुई अंकगणित की बात
जिसमें सभी अंक भिन्नों में हैं।
वही जीवन का व्याकरण
जिसमें है बहु बहु बहुब्रीहि। किन्तु
नहीं हुआ।
क्योंकि शब्दों के साथ युद्ध मैं हार गया हूँ
चातुरी के साथ बोलने,
मैजिक लैंटर्न की छायाबाजी में
मैं हार गया हूँ।
अजित बरुवा की कविता : 'पाठकलइ बिदाय हंभाख़न' का अनुवाद
शिव किशोर तिवारी द्वारा मूल असमिया से अनूदित
अनुवादक की टिप्पणी : यह कविता बरुआ के काव्यशास्त्र की घोषणा है। यथार्थ – यहाँ तक कि सत्य का भी कोई आग्रह नहीं है। काव्यरचना के दो ही आयाम हैं – कवि का अन्तर्जीवन और उसकी अभिव्यक्ति के लिए शब्दों से अनवरत संघर्ष।‘उद्घात’ (allusion) के रूप में महाभारत का प्रसंग है - जब युद्ध में सब कुछ गँवाकर दुर्याधन तन-मन की ज्वाला मिटाने द्वैपायन सरोवर में प्रविष्ट हो जाता है। कामरूप के नक्शे का संदर्भ बरुवा की 1948 में लिखी कविता ‘मन-कुँवली हमय’ (जब मन के ऊपर कोहरा था) में है। कदाचित स्कूल में आवश्यक कामरूप जिले का नक्शा भूल आने के कारण मास्टर से डाँट या दण्ड मिलने की बाल-स्मृति है। यहाँ कामरूप का नक्शा न लाना दूसरों की अपेक्षाओं की उपेक्षा और अपने परिवेश के बाह्य यथार्थ के प्रति उदासीनता का रूपक है।