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दूबों से पूरित मेरे आँगन में पहरों से आकर.
सजनी! आज चतुर्दिक से रजनी है घिरी अमावस की,
कभी गरजते घन, विद्युत से कभी चमक उठाता उठता अम्बर.
 
इतनी दूर हुई तुम मुझसे जितनी दूर कल्पना से
दूर देश से, मेघों-सी ही झंझानिल गति से चलकर?
 
नील तिमिरमय वासन वसन तुम्हारा, बूँदें चल नूपुर मणियाँ,
सुनता मैं रिमझिम आँगन में, प्रिये! तुम्हारी पग-ध्वनियाँ
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