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पाहुन / कुमार वीरेन्द्र

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आए पाहुन
शान से, रहे पाहुन ठान के; खाए हलवा
पूड़ी, करवाई जी-हज़ूरी; मिली साली भोली, की हँसी-ठिठोली; जमे रहे घर ही में, रमे रहे
घर ही में; अउर देखो, अउर देखो, अउर, बिन मारे पड़े कपारे लउर; बीता सप्ताह महीना
गए ना पाहुन नगीना; मूँड़ी गड़ी नगरी में, सास-ससुर गगरी में; वाह पाहुन
वाह पाहुन वाह, सहजे पा लिए ग़ज़बे छाँह; आए माई-बाबू
के सन्देश, ससुरारी में बदल लिए भेस; आ मत
भर रे बबुआ पेट, सूख रहा इहँवा रे
खेत; पर का करें पाहुन
किससे डरें

जी, पाहुन
ससुराल-मज़ा खाजा हो खाजा
भरे मन ना राजा हो राजा; अरे कबूतरी के कबूतर हो, तू तऽ बड़ा अच्छा
वर हो; जीओ जी जीओ पट्ठा, बिन महे कर रहे मट्ठा; अजब रे अजब ठट्ठा
बैठा रहे भट्ठा रे भट्ठा; एक दिन गाँव लौटने को भी सोचा
तो ख़रीदवाए कपड़ा, जूता, मोज़ा; हे जम्ह
तोहरे कारन बहुते हुआ हरजा
सोचा, कितना
पइँचा

कितना हुआ करजा !