भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पिता / मनीष मिश्र

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:05, 19 अप्रैल 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब चुकने लगते हैं पिता
माँ हो जाती है प्रासंगिक।
माँ धीरे-धीरे हो जाती है
दादी या नानी।
वर्षों के अनुभवों के बावज़ूद
पिता रह जाते हैं
महज़ पिता।