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पीटर्सबर्ग में पतझर / बुद्धिनाथ मिश्र

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रात दिन झलते रहे
रंगीन पत्तों से
वृक्ष वे फिर भी रहे
मेरे लिए अनजान।

वे नहीं थे भोजवृक्षों
की तरह अभिजात
मानते थे वे वनस्पति की
न कोई जात।

पत्तियाँ उनकी सभी
होती कनेर-गुलाब
घोर पतझर में दिलाते
फागुनी अनुदान।

उड रहे हैं फडफडा
इतिहास-जर्जर पत्र
दिख रही पतझार की
आवारगी सर्वत्र।

डूबता दिन चंदगहना
चीडवन के पार
लडकियों के सुर्ख
गालों की तरह अम्लान।