भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पुराना जब नये को तोलता है / ज़ाहिद अबरोल

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र 'द्विज' (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:18, 27 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज़ाहिद अबरोल |संग्रह=दरिया दरिया-...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


पुराना जब नये को तोलता है
तो उसका अपना अंदर डोलता है

पुराने को नया जब तोलता है
ज़बान-ओ-ज़िहन-ओ-दिल सब खोलता है

कोई आवाज़ ऊंची हो तो समझो
मुक़द्दर का ‘सिकन्दर’ बोलता है

यक़ीं में हो मसीहाई की ताक़त
मसीहा तब कहीं दर खोलता है

ख़ुदा का शुक्र है “ज़ाहिद” सफ़ों में
कोई है जो अलग से बोलता है

शब्दार्थ
<references/>