भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"पुरुष / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> ''' पुरुष ''…)
 
 
पंक्ति 8: पंक्ति 8:
  
 
'''    पुरुष    '''
 
'''    पुरुष    '''
 +
 +
पुरुष औरत के जिस्म का
 +
वह कीड़ा है
 +
जो उसे ताउम्र
 +
काटता
 +
कुतरता और
 +
कतरता जाता है
 +
 +
वह उसे
 +
चाटता है
 +
चबाता है
 +
चूसता है
 +
चिचोरता है
 +
और धीरे-धीरे
 +
चट कर जाता है
 +
 +
यही है औरत के लिए
 +
प्रेम, करुना और दया से संश्लिष्ट
 +
उसका सार्वभौमिक पुरुषत्त्व
 +
या, उसके प्रति उसका
 +
सर्वस्वीकृति, सर्वमान्य
 +
ऐतिहासिक सौन्दर्यबोध
 +
 +
यह कातिलाना सौन्दर्यबोध
 +
विस्तीर्ण है, विराजमान है
 +
असीम, अविराम, अविच्छिन्न--
 +
गीता से कुरान तक,
 +
आदिम से वर्तमान तक,
 +
देव से दानव तक,
 +
दूरदर्शन से देह-दुकान तक
 +
और घर से लड़ाई के मैदान तक.

15:49, 30 जुलाई 2010 के समय का अवतरण


पुरुष

पुरुष औरत के जिस्म का
वह कीड़ा है
जो उसे ताउम्र
काटता
कुतरता और
कतरता जाता है

वह उसे
चाटता है
चबाता है
चूसता है
चिचोरता है
और धीरे-धीरे
चट कर जाता है

यही है औरत के लिए
प्रेम, करुना और दया से संश्लिष्ट
उसका सार्वभौमिक पुरुषत्त्व
या, उसके प्रति उसका
सर्वस्वीकृति, सर्वमान्य
ऐतिहासिक सौन्दर्यबोध

यह कातिलाना सौन्दर्यबोध
विस्तीर्ण है, विराजमान है
असीम, अविराम, अविच्छिन्न--
गीता से कुरान तक,
आदिम से वर्तमान तक,
देव से दानव तक,
दूरदर्शन से देह-दुकान तक
और घर से लड़ाई के मैदान तक.