भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पुष्प-गुच्छ माला दी सबने तुमने अपने अश्रु छिपाए / हरिवंशराय बच्चन

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:29, 12 नवम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पुष्प-गुच्छ माला दी सबने, तुमने अपने अश्रु छिपाए।

एक चला नक्षत्र गगन में
और विदा की आई बेला,
और बढ़ा अनजान सफ़र पर
लेकर मैं सामान अकेला,
और तुम्हारा सबसे न्यारा--
पन मैंने उस दिन पहचाना।
पुष्प-गुच्छ माला दी सबने, तुमने अपने अश्रु छिपाए।

रस्म सदा से जो चल आई
अदा उसे करना मुश्किल क्या,
किसको इसका भेद मिला है
मुँह क्या बोल रहा है, दिल क्या,
पिघले मन के साथ मगर था
जारी यह संघर्ष तुम्हारा,
शकुन समय अशकुन का आँसू पलक-पुटों से ढलक न जाए।
पुष्प-गुच्छ माला दी सबने, तुमने अपने अश्रु छिपाए।