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"पेड़ चलते नहीं / सुरेश यादव" के अवतरणों में अंतर

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पेड़ ज़मीन पर चलते नहीं
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देखा भी नहीं किसी ने
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पेड़ों को ज़मीन पर चलते हुए
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|रचनाकार=सुरेश यादव
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धूप हो कड़ी और थकन हो अगर
 
आस पास मिल जाते हैं पेड़ -
 
सिर के ऊपर पिता के हाथ की तरह 
 
कहीं माँ की गोद की तरह
 
  
 
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आँखें नहीं होती हैं - पेड़ों की
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न होते हैं पेड़ों के कान
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वक्त के हाथों टूटते आदमी की आवाज़
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सुनते हैं पेड़, फिर भी
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आँखों देखे इतिहास को बताते हैं पेड़
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अपनी देह पर उतार कर
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बूढ़े दादा के माथे की झुर्रिओं की तरह
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जीत का सन्देश देते हैं पेड़
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नर्म जड़ें निकलती हैं जब
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चट्टानें तोड़ कर
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पेड़ों की अपनी भाषा होती है
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धर्म का प्रचार करते हैं पेड़
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फूलों में रंग और खुशबू भर कर
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गूंगे तो होते नहीं हैं पेड़
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बोलते हैं, बतियाते हैं
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बसंत हो या पतझर
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हर मौसम का गीत गाते हैं पेड़
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कभी कोपलों में खिलकर
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कभी सूखे पत्तों में झर कर।
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09:57, 12 अगस्त 2011 का अवतरण