भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पेनिलोपी का शोक / यानिस रित्सोस

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऐसा नहीं था कि वह चूल्हे से निकलती हल्की रोशनी में,
उसके भिखारियों जैसे तार-तार कपड़ों में उसे पहचान न पायी हो; नहीं, सब कुछ साफ़ था:
घुटने की हड्डी पर वही निशान, वही दिलेरी और चतुर निगाहें।
दीवाल से पीठ टिकाये हुए वह डर गयी, उसने कोई बहाना खोजना चाहा,
ताकि थोड़ा वक़्त मिल जाये, तुंरत जवाब न देना पड़े,
वह अपनी भावनाएँ छिपा सके। तो क्या इसी के लिए उसने अपने
बीस साल गँवा दिये ?
इंतज़ार करने और सपने देखने के बीस साल, इसी कंबख्त, खून से सने हुए
सफेद दाढ़ी वाले आदमी के लिए ? वह अवाक एक कुर्सी पर
ढह गयी, फिर उसने गौर से अपने विवाह के प्रार्थियों को फ़र्श पर मरे हुए देखा
जैसे अपनी ही मरी हुई इच्छाओं को देख रही हो। उसने कहा, 'आइए',
और उसे अपनी ही आवाज़ किसी और की, दूर से आती हुई लगी। एक कोने में रखे हुए
उसके करघे की छाया छत पर पिंजड़े की तरह पड़ रही थी; और वे तमाम चिडियां
जिन्हें वह हरे पत्तों के बीच लाल धागों से काढ़ती रही थी, अब
वापसी की इस रात में अचानक ज़र्द और काली पड़ गयी थीं
और उसकी आखिरी सहनशीलता के सपाट आसमान में बहुत नीचे उड़ने लगी थीं।


अंग्रेज़ी से अनुवाद : मंगलेश डबराल