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प्यार की भाषा / प्रेमलता त्रिपाठी

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सुरभि मधुमास की छायी सुने सब प्यार की भाषा।
कुहुक कोकिल बचन सुनिए मगन मनुहार की भाषा।

विहँस मदमस्त करती जो सदा मनको रहे हरती,
कनक शोभा लिये सर्षप लहर श्रंृगार की भाषा।

गमक उठती कली छलके सरस मकरंद मदिरालय,
भ्रमर मन झूमकर भूला सहज पतझार की भाषा।

नये तरुपात ले पतझर वहीं जब कोकिला कुहुके,
मिलन पियसे हिया हरषे मगन उद्गार की भाषा।

सहज होता नहीं जीवन भटकता रह गया तन-मन,
मधुर मीठे पलों को हम समझ अधिकार की भाषा।

पथिक जो प्रीति का छलिया गया वह भूल अपनों को,
मिलन हित प्रिय नयन बरसे समझ परिहार की भाषा।

सभी बुनते सुहाने स्वप्न यादों के सहारे फिर,
दिवस सब बीतते ऐसे लिए स्वीकार की भाषा।

करें वंदन सखा सब मिल अहो ऋतुराज का संगम,
लताएँ प्रेम की विकसें भुला प्रतिकार की भाषा।