भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रकृति हूँ मैं ही / जया पाठक श्रीनिवासन

Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:42, 13 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जया पाठक श्रीनिवासन |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तो तुम्हे लगता है-
कि तुम प्रयोजन हो?
जानते हो -
कड़ी दर कड़ी
बढ़ती है
प्रकृति
ओज से भरी
अमृत से लबालब
विकसित फूलों की क्यारी सी
जिसमें
आते हो तुम
भटकते - भ्रमर से
इधर उधर
और बीजते हो
अगली फूलों की जमात
तुम्हारा आना और जाना यह
पल भर का
मेरी अनादी-अनंत की गति में
रह जाता
एक बिंदु मात्र
फिर भी,
तुम्हारी उम्र से नापकर
विधाता से
मांगती हूँ हमेशा
अपने लिए कुछ कम घड़ियाँ

जाने क्यों
लगता है मुझे भी
अक्सर
कि, तुम ही प्रयोजन हो !