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प्रतिनिधि कुण्डलियाँ / गरिमा सक्सेना

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जाना ही होगा प्रिये!, अब धर फौजी वेश।
मुझे बुलाती सरहदें, बुला रहा है देश।।
बुला रहा है देश, ख्याल तुम अपना रखना।
आऊँगा मैं लौट, राह मेरी तुम तकना।
मुझको अपना फर्ज, पड़ेगा आज निभाना।
अश्रु बहा मत आज, कठिन होगा फिर जाना।।

गिरगिट जैसे लोग हैं, पल-पल बदलें रंग।
भारी जो पलड़ा लगे, हो लें उसके संग।।
हो लें उसके संग, साधते काम सयाने।
पीछे जाते भूल, बाद बनते अंजाने।
मिला न पायें नैन, झाँकते बगलें सिटपिट।
अपनी पूँछ समेट, भागते जैसे गिरगिट।।

जिस घर रोटी-दाल पर, होता सोच विचार।
उस घर में कैसे मने, मुनिया का त्योहार।।
मुनिया का त्योहार, सदा फीका ही रहता।
आँखों से दिन-रात, दुखों का निर्झर बहता।
खुशियाँ महँगी आज, बिलखते हैं उसके स्वर।
कैसे हो त्योहार, रहे बदहाली जिस घर।।

आँचल में माँ के सुधा, और नयन में नीर।
नव जीवन करती सृजित, सहकर भारी पीर।।
सहकर भारी पीर, बीज को वृक्ष बनाती।
दे ममता की छाँव, दुखों से उसे बचाती।
बाँटे केवल नेह, हृदय माता का निश्छल।
है धरती का स्वर्ग, यही ममतामय आँचल।।

पोखर, नाले कर रहे, नदिया का परिहास।
हम-सी ही मैली हुई, तुझमें अब क्या ख़ास।।
तुझमें अब क्या ख़ास, प्रदूषित तेरा भी जल।
तेरे तट पर प्यास, आज रहती है बेकल।
मंद पड़ी है धार, पड़े पाँवों में छाले।
तुझमें है क्या भिन्न, कहें सब पोखर, नाले।।

बदहाली की ज़िंदगी, शोषण, पीर, अभाव।
कृषकजनों की देह पर, रोज़ बो रहे घाव।।
रोज़ बो रहे घाव, नहीं सुनती है दिल्ली।
रखवाली के लिये, दूध को बैठी बिल्ली।
नेताओं की मौज, भरी रहती है थाली।
कृषक भाग्य में, टीस, भूख, विपदा, बदहाली।।

मोबाइल में हैं बिजी, घर के सारे लोग।
अम्मा बैठी सोचती, लगा बेतुका रोग।।
लगा बेतुका रोग, सभी खोये अपने में।
बने मुंगेरीलाल, जी रहे किस सपने में।
संबंधों से दूर, इमोजी में है स्माइल।
रहा दूरियाँ पाट, सही में क्या मोबाइल?

सिर पर है साया नहीं, भटकें बाल अनाथ।
मजदूरी को हैं विवश, नन्हे-नन्हे हाथ।।
नन्हे-नन्हे हाथ, प्लेट, कप धोते रहते।
खाकर आधे पेट, मार-दुत्कारें सहते।
जिन पर टिका भविष्य, भटकते वे ही बेघर।
शिक्षा से रह दूर, ढो रहे बोझे सिर पर।।

किस्मत हल को खेत में, कृषक रहा है खींच।
माटी को सोना करे, श्रम से अपने सींच।।
श्रम से अपने सींच, भोज्य देता है जग को।
आह! मगर दुर्भाग्य, स्वयं पाता किस मग को।
मिले उचित जब मूल्य, सफल तब होगी मेहनत।
बदलेंगे हालात, संग कृषकों की किस्मत।।

बन जाओ जो तुम बड़े, यह मत जाना भूल।
नहीं पनपते वृक्ष वे, कटता जिनका मूल।।
कटता जिनका मूल, पुन: वे नहीं पनपते।
जाते हैं वे सूख, स्नेह बिन सिर्फ तड़पते।
संस्कार, सद्ज्ञान, स्वयं सीखो, सिखलाओ।
रखो बड़ों का मान, बड़े खुद भी बन जाओ।।

धूप ओढ़कर दिन कटे, शीत बिछाकर रात।
अच्छे दिन देकर गये, इतनी ही सौगात।।
इतनी ही सौगात, नहीं दिखता परिवर्तन।
सिर्फ़ गरजते मेघ, रहा सूखा यह जीवन।
पड़े हुए हैं स्वप्न, पेट में पैर मोड़कर।
खोज रहे हैं छाँव, खड़े हैं धूप ओढ़कर।।