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प्रतिश्रुति का गीत / रणजीत

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मैं आज के युग में जी रहा हूँ
और आज की, एकदम आज की -
सँक्रान्ति झेल रहा हूँ
पर मैं असंगतियों और विद्रूपताओं के
विक्षेप और आत्महनन के गीत कैसे गाऊँ ?

जबकि मेरे आसपास सब कुछ अँधेरा ही नहीं है।
तमाम दूरियों के बावजूद मेरे माता-पिता
अभी मेरे लिए बेगाने नहीं हुए हैं
अपने घर में
मैं अभी आउट-साइडर नहीं हुआ हूँ
मेरी पत्नी अभी मेरे लिए अजनबी नहीं बनी है
मेरे दोस्त अभी मेरी भाषा समझते हैं।
यह नहीं कि मुझे कभी अकेलापन नहीं सताता

पर अधिकतर मैं जब भी चाहता हूँ
अपने अकेलेपन को
अपने साथियों के कन्धों पर टाँग सकता हूँ :
झोले में पड़ी एक पुस्तक की तरह
अपनी प्रिया की आँखों में खो सकता हूँ :
स्वच्छ सरोवर में डुबकियाँ लगाते हुए
एक जलपक्षी की तरह
अपने विद्यार्थियों के चेहरों पर छिड़क सकता हूँ :
गर्मी की किसी दोपहर में
ख़स से सुगन्धित ठंडे पानी की तरह
और अपनी क़िताबों के पन्नों पर बिखेर सकता हूँ :
गुलाब की ताज़ा पंखुरियों की तरह
या नई ख़बरों के आकाश में उड़ा सकता हूँ:
एक नन्हें से सफ़ेद कबूतर की तरह
और जब यह कुछ भी संभव न हो
तो किसी भी जाते हुए राहगीर के
प्रतिश्रुति का गीत
पल्ले से बांध सकता हूं उसे:
रोटी और आचार की
एक छोटी-सी पोटली की तरह !

लोग मुझे सीली हुई दियासलाइयों से असहाय कैसे लगें?
जबकि मैं उन्हें देखता हूँ :
लोगों के लिए लड़ते हुए
बिना टूटे जेलों में सड़ते हुए !
दुनिया मुझे सिफ़लिस से बज़बज़ाई हुई
मवाद चुआती हुई
मुट्ठियों में अपनी मौत की विरासत बाँधकर जाती हुई
कैसे दिखाई दे ?
और क्यों लगें फुंसियों की तरह आकाश के तारे ?
जब कि फुंसियों और बीमार मनों
दोनों का ही इलाज संभव है !

मैं विक्षेप के विद्रूप
और मृत्यु के संत्रास की कविताएँ कैसे लिखूँ ?
जबकि सब बातों के बावजूद
मेरा देश अभी अमेरिका नहीं हुआ है
मेरी धरती अभी चमगादड़ों की दुर्गंधित गुफ़ाओं
और बारूद के ज़हरीले धुएँ से घुटे खंडहरों में नहीं बदली है
और न आकाश में मकड़ियों ने ही अपने जाले बनाए हैं
मेरी सभी हवाओं में अभी ज़हर नहीं घुला है
और न मेरी नदियाँ
बिलबिलाते हुए कीड़ों-भरी नाबदानों में ही बदली हैं

पागलखाने और चकले
अभी मेरे नगरों में ही हैं
मेरे नगर अभी पागलखानों और चकलों में नहीं गए हैं
लोग भूखों तो मरते हैं
पर अभी शमशान में ही ले जाकर जलाए जाते हैं
शमशान अभी घरों में नहीं उतरे हैं
मनुष्यों और मनुष्यों के बीच अभी बहुत कुछ शेष है

फूल अभी खिलते हैं
पक्षी अभी चहचहाते हैं
मेरे आसपास अभी बहुत सा उजाला है !
मैं चिटखे हुए मन
और टूटे हुए व्यक्तित्व के गीत कैसे गाऊँ ?

जबकि अपने व्यक्तित्व की हर दरार
मैं अपने इसी देश की मिट्टी से पूर सकता हूँ
और अपने मन की हर चिटखन को
अपने इन्हीं लोगों के स्नेह से जोड़ सकता हूँ ।
यह नहीं
कि मैं अपने परिवेश की असंगतियों के प्रति अन्धा हूँ
या कि मैं उसकी विरूपताओं को देखना नहीं चाहता
नहीं, मैं उन्हें देखता हूँ
पर मैं सिर्फ़ उन्हें ही नहीं देखता
और न उनके गौरवगायन में
अपनी कविताओं को लगाना चाहता हूँ

मैं उन विरूपताओं की लपटों के बीच
प्रहलाद की तरह सिर उठाते हुए सौन्दर्य को भी देखता हूँ
और उस संगति को भी
जो इन विसंगतियों की काई फाड़कर झाँक जाती है ।

मैं अपने चारों और फैली हुई संक्रान्ति से नहीं
उसके बीच से अपने नक्श उभारती हुई
क्रान्ति से प्रतिश्रुत हूँ !
अस्तित्व की बेहूदगियों के रेगिस्तान का नहीं
उसके नीचे बहती हुई
सार्थकता की उस अन्तःसलिला का कवि हूँ
जो पाताल-तोड़ कुएँ के रूप में फूट पड़ना चाहती है !
मैं उसकी मुक्ति के लिए संकल्पित हूँ ।