भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रतीक्षा / पुरुषार्थवती देवी

Kavita Kosh से
Jangveer Singh (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:07, 29 दिसम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पुरुषार्थवती देवी |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


ओह! विदा माँगने आईयह क्षीण हुई उजियाली।
मैं व्यस्त हो उठी अब तो लखकर पश्चिम की लाली॥
आशा की लहरें ठगकर यह सूना-सा अन्धेरा।
रो उठतीं दूर क्षितिज पर रुकता-सा हुआ बसेरा॥
हम नहीं मानते फिर भी इस नैराश्य को, आखिर।
जा-जाकर फिर आ रुकते उस पार वहीं होकर स्थिर॥
कैसे सुलझाऊँ मन को? निष्प्राण नेत्र हैं चाहें।
उलझाती ही जाती हैं, वह भीगी-भीगी आहें॥
इस पीड़ा में भी क्रीड़ा-कौतुक की अद्भुत खेलें।
अब नहीं सँभाले जाते उद्देश्य-विहीन झमेले॥
कब से बैठी करती हूँ प्राणों से सजल प्रतीक्षा।
ना-लो! बस दे न सकूँगी निर्मम! अब अधिक परीक्षा।