भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रपंच और चापलूसी/रमा द्विवेदी

Kavita Kosh से
Ramadwivedi (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:36, 17 जून 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 

१- प्रपंच का भी आज आधुनिकरण हो गया है
इसलिए चौपाल छोड़ नेट-ग्रुप में हो गया है,
यहाँ पर भी है अँधेर नगरी का चौपट राजा,
टके सेर भाजी और टके सेर खाजा हो गया है।

२-प्रणाम और चापलूसी कर प्रशंसा पा लेते हैं,
खुद को महाकवि मान अनुशंसा कर लेते हैं,
कूपमण्डूक की तरह टर्र-टर्र करते हैं मित्रों केलिए
काल की कसौटी में खुद को दफ़न कर लेते हैं।

३-तू मेरी जय बोल मैं तेरी जय बोलूँगा ,
यही आधुनिक कवियों का नारा है,
चार महारथी मिल जो आपको मंच दे दे,
उसी की सत्ता मान आप करते जयकारा है।

४-कुकरमुत्ते की तरह गली-गली कवि उगने लगे हैं,
इन्सटेंट कविता लिख आशु कवि बनने लगे हैं,
कालिदास ने तो गिनती के ही ग्रन्थ रचे जीवन भर में
ये तो वर्ष के तीन सौ पैंसट दिन कविता लिखते हैं।

५- ब्लाग पर प्रशंसा पा लेना सबसे आसान है,
' वाह-वाह' लिख सबको भेजे वही महान है,
फिर वही कमेंट्स आपको मुफ़्त में आ जायेंगे,
और सबकी नज़र में आप बन जाते विद्वान हैं।