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प्रवासन / ज़करिया मोहम्मद / अनिल जनविजय

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वे सबके - सब चले गए
उत्तर दिशा में उस जगह पर
जहाँ उनकी छातियों से ऊँची
उगती है घास

अपने पीछे छोड़ गए वे
अपने बच्चों के फटे हुए कपड़ों के चीथड़े
और अपने तम्बुओं की खूँटियाँ

वे जा चुके हैं
खच्चरों की पीठ पर
बँधे हुए हैं उनके बच्चे
युवक लादे हुए हैं टोकरियाँ
सुनाई दे रही हैं उनकी भेड़ों के गले में बँधी घण्टियाँ

वे उन बादलों की तरह थे
जो स्वर्ग तक पहुँचना चाहते थे
जितना ज़्यादा वे ज़मीन के भीतर घुसते चले गए
उनकी परछाइयाँ उतनी ज़्यादा फैलती रहीं
और उनके शिविरों पर छा गईं

उनके कुत्ते चुप थे
वे पलायन करती हुई प्रवासियों की इस भीड़ से
आगे निकल जाएँगे और फिर दूर जाकर बैठ जाएँगे

वे देख रहे हैं
उन हिलती-डुलती परछाइयों को
उन्हें लगता है
कि वे पीछे लौटेंगे
किसी अन्धेरी नदी की तरह ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : अनिल जनविजय

लीजिए, अब यही कविता अँग्रेज़ी अनुवाद में पढ़िए
           Zakaria Mohammed
                  Emigration

They're all gone
towards that place in the North
where the grasses grow
to the height of their breasts

They left behind them
tattered strips from their children's clothes
and the pegs of their tents

They're gone
Their children on the backs of mules
Their youths carrying baskets
and their sheep's bells

They were like a cloud
climbing up to heaven
The more they penetrated the land
the more their shadows expanded
and returned towards the camps

Their dogs were mute
They would surpass the migrating crowd,
then sit down

their eyes watching
the moving shadows
as they ran back ward
like a dark river.