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प्रस्तुति / मलय रायचौधुरी / दिवाकर ए० पी० पाल

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कौन कहता है कि बरबाद हूँ मैं ?
बस यूँ कि विष-दन्त नख-हीन हूँ?
क्या अपरिहार्यता है उनकी?
कैसे भूल गए वो खँजर?
उदर में मूठ तक घुसा हुआ?
बकरे के मुँह में इलायची की हरी पत्तियाँ,
वे सब घटनाएँ? घृणा-कला, क्रोध-कला, युद्ध-कला !
बन्धक युवती सन्थाल;
फटे फेफड़ों से सुर्ख, खुखरी की चमकती बेचैनी?
वो सब?
हृदय के ख़ून से लथपथ, खिंचे हुए गर्वान्वित चाकू?
गीतहीन हूँ मैं, संगीतहीन-सिर्फ़ चीत्कारें
जितना खोल सकता हूँ मुख —
निर्वाक वन की भेषज सुगन्ध;
हरम - सन्यास या अन्ध-कोठरी.
मैंने कभी नहीं कहा, "जिव्हा दो, जिव्हा
वापस लो कराहें!
दाँत भींचे हुए, सहनशक्ति, वापस लो!"
निर्भय बारुद कहेगा : "एक मात्र शिक्षा है मूर्खता".
हाथ-हीन, अपंग
दाँतो में खँजर दबाए, कूद पड़ा हूँ, जुए की बिसात पर।
घेर लो मुझे, चारों ओर से
चले आओ, जो जहाँ हो, नौकरीशुदा शिकारी के जूते में —
जरासन्ध के लिंग, जिस तरह विभाजित
हीरों की झुलसती आभा
हाथ-पैर चलाने के अलावा और कोई ज्ञान, बचा नहीं जगत में
सेब के जिस्म की तरह मोम-मखमली नाज़ुक स्नेह
समागम से पहले पँख खोल कर रख देगी चींटी.
खम ठोंक कर मैं भी ललकारता हूँ ये विकल्प —
दुनिया को ख़ाली करो ! निकलो, निकल जाओ सर्वशक्तिमान !
बन्दर के खुजाने वाले चार हाथों में
शन्ख-चक्र-गदा-पद्म :
अपने ही पसीने के नमक में लवण-विद्रोह हो
बारूद धाग के साथ धमाके की ओर, चलती रहे चिंगारी
वाक फ़सल के दुकानदारों, चले आओ !
शरीर में अन्धकार लीप-पोत कर
पिल्लों के झगड़े से गुलज़ार रातों में
कीटनाशक से झुलसे-अधमरे फ़तिंगों के दोपहरों में,
ज़मीनी ज्ञान से फिसलते केंचुए, ऊपर आओ —
खँजर के लावण्य को फ़िर से इस इलाके में वापस लाया हूँ मैं।

मूल बंगला से अनुवाद : दिवाकर ए० पी० पाल