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प्‍यार - दो कविताएं / कुमार मुकुल

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1


प्‍यार आलोकित कर जाता है
सुबहों को
और शामों को
बनाता चला जाता है रहस्‍यमयी
प्‍यार
जैसे तारों से आती है टंकार...
और सारा दिन निस्‍तेज पड़े
चांद की रौशनी
वापस आने लगती है
प्‍यार
कि आत्‍मा अपने ही शरीर से बेरुख़ी करती
कहीं और जा समाने को मचलने लगती!
प्‍यार
और ख़ुशियों का ठाठें मारता पारावार चतुर्दिक
और आसमान डूबता चला जाता है समंदर में
उसके अनंत खारेपन को
अपनी नीली सुगंध से रचता...
रौशन करता
कि शब्‍दों की अनंत लड़ी
फूटने-फूटने को होती है जेहन से
और इस नाजुक लड़ी में कैद होता चला जाता है
कोई भी कठोरतम हृदय
प्‍यार
और अरुणाकाश में पसरने लगते हैं सप्‍तवर्णी रंग
पंछियों के परों को स्निग्‍ध और ऊर्जामयी करते हुए
प्‍यार
और पूरी रात नशे में फूटते हरसिंगारों को संभालती
थकने लगती है रात
और जा गिरती है सुबह की गोद में
सुगंध से पूरित!
प्‍यार
और दो नामालूम से जन
एक दूसरे को बनाना शुरू करते हैं विराट
तो फिर तमाम मिथकों और दंतकथाओं को
उनका पार पाना कठिन पड़ने लगता है
प्‍यार
एक धीमी-सी आकुल पुकार
जो बहुगुणित होती कँपाने लगती है
आकाशगंगाओं को
और तारों की छीजती बेचैन रौशनी
अनंत प्रकाश बिंदुओं में
तब्‍दील होती चली जाती है...


2

प्‍यार
जैसे एक हाहाकार
आकुल-व्‍याकुल जनों की नींद में जगता
दु:स्‍वप्‍नों की तरह
जनसमुद्र की अनंत पछाड
तोड़ती हाड तट का
प्‍यार
एक विनम्र इनकार
विश्‍वबाज़ार के सुनहले ऊँटों को
कि हम जो भी, जैसे भी है
स्‍वतंत्र और समृद्ध हैं
अपनी आत्‍मा के ताप के साथ
प्‍यार
कि हाँ तुम अब भी
ले सकते हो हमसे
अनंत उधार शब्‍दों का
और उसका मोल चुकाए बिना
उससे अपनी क़िस्‍मत
चमकाए फिर सकते हो
प्‍यार
पीड़ित जनों की आत्‍मा का
एकल और संयुक्‍त इश्‍तहार कि
हाँ, हम अकेले है
पीडि़त हैं, क्षुधित हैं
पर हम ही भर सकते हैं
विश्‍व का अक्षय अनंत अन्‍न,रत्‍नकोश
कि हमारी असमाप्‍त क्षुधा का
तुम नहीं कर सकते व्‍योपार...
प्‍यार प्‍यार प्‍यार
आदमी के अंतर और बाहर
दसों दिशाओ से आती है एक ही पुकार
प्‍यार प्‍यार प्‍यार

{अरूणा राय के लिए, एक सुबह जिनका चैट पर इंतज़ार करते यह कविता लिखी थी }