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फूटी कौड़ी नहीं जेब में / धीरज श्रीवास्तव

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फूटी कौड़ी नहीं जेब में
किससे ठग कर लाये अब ?
कैसे कटे गरीबी उसकी
कैसे काम चलाये अब ?

सुरसतिया भी नहीं डालती
उसको घास जरा कुछ भी !
मुँह बिचकाकर कह देती है
तुझमें नहीं धरा कुछ भी !
बिन पैसे के कहाँ जमाना
किससे मन बहलाये अब ?

दारू पीकर चौकीदारी
जाने कितने साल किया !
फूट गयी पर पोल एक दिन
कर्मों ने कंगाल किया !
हाथ नहीं रह गयी नौकरी
बैठा सिर खुजलाये अब।

बनिये ने की बंद उधारी
यार गये सब भूल उसे !
देख दशा हँस रहे पड़ोसी
रोग चुभे बन शूल उसे !
झूठ - मूठ किस्मत पर अपनी
बस केवल झल्लाये अब।