भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बंद होने से ही लाखों की हुई / विनोद प्रकाश गुप्ता 'शलभ'

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:03, 27 नवम्बर 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विनोद प्रकाश गुप्ता 'शलभ' |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


बंद हाेने से ही लाखाें की हुई ,
खुल गई ताे फिर कहाँ मुट्ठी हुई ।

चीख़ती है ख़्वाहिशें शमशान में ,
इस क़दर रुस्वा काेई मिट्टी हुई ।

जूतियाें की नाेक पर रख - रख के ही ,
उनकी पेशानी है यूँ चमकी हुई ।

अब कहाँ सच बाेलता है आईना ,
इसलिए उससे मेरी कुट्टी हुई ।

हम सभी कठपुतलियाँ हैं नाचतीं ,
है हुकूमत की नज़र हँसती हुई ।

जाने किसकाे साैंप दे ईमान अब ,
है अना अपनी कहीं भटकी हुई ।

जब मरेगा तू ‘शलभ’ देखेंगे सब ,
लाश ट्विटर पे तेरी जलती हुई ।