भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बगरोॅ / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:51, 28 मार्च 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनिरुद्ध प्रसाद विमल |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चलोॅ बताबोॅ हमरा बाबा,
को रंग बगरो होय छै बाबा।

कोबोॅ भर के छटपटिया पंक्षी,
आय देखावोॅ हमरा बाबा।

मांटी घर नरूआ के छौनी में,
केनां रहै छै बगरो बाबा।

पोता जिदोॅ पर अड़लोॅ छै,
बगरोॅ देखी ही मानभौं बाबा।

घोॅर, ओसरा, कोन्टा सगरोॅ,
देखी थकलौं हम्में बाबा।

तोरोॅ चुप्पी से हम्में की बूझौं,
खाली किस्सै में छै बगरोॅ बाबा।

चुप करोॅ तोंय बगरोॅ किस्सा,
छाती होॅर चलै छै बाबा।

टी. वी. मोबाइल के चलती में,
सब ठो बगरो मरलै बाबा।