भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बचकर रहना / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चारों ओर रेंगते विषधर
बचकर रहना।

इनसे बढ़कर मानुष का डर
बचकर रहना।।

भले लोग ही बसे यहाँ हैं
इन भवनों में।

रोज फेंकते हैं ये पत्थर
बचकर रहना।।

जहर बुझी है इनकी वाणी
कपट कवच है।

छल प्रपंच है इनका बिस्तर
बचकर रहना।।

कदम कदम पर फूलों का
भ्रम फैलाते हैं ।

छुपे हुए फूलों में नश्तर
बचकर रहना॥

चन्दन- वन को राख किया है
इन लोगों ने।

अब आए ये वेश बदलकर
बचकर रहना॥

अंगारों पर चलकर हमने
उम्र बिताई ।

ढूँढ, न पाए हम अपना घर
बचकर रहना॥