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बढ़ गया है दायरा तारीकियों का / सुभाष पाठक 'ज़िया'

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बढ़ गया है दायरा तारीकियों का
सिलसिला अब ख़त्म है परछाइयों का

सहमा सहमा सा लगे है आज सूरज
आ गया हो जैसे मौसम सर्दियों का

महफ़िलो तुमसे भी में इक दिन मिलूँगा
सिलसिला टूटा अगर तन्हाइयों का

तीरगी में राह दिखलाई चमक कर
है बड़ा अहसान मुझपर बिजलियों का

हमने ही चाहा कि पानी पर चलें हम
अब किसे इल्ज़ाम दें बर्बादियों का

तुमने आकर ही ज़िया दी है 'ज़िया' को
वरना इक जंगल था वो तारीकियों का