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बताओ क्या करूँ मैं ? / सुरेन्द्र सुकुमार
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चुक रहा जीवन भी वेतन-सा महीने का
बताओ क्या करूँ मैं ?
लग गए हैं पंख दिन के बाजुओं पर
मैं अपाहिज-सा घिसटता जा रहा हूँ
बढ़ रहे हैं लोग दिन के सूर्य जैसे
मैं कुहासे-सा सिमटता जा रहा हूँ
टूट कर फिर जुड़ रहा है अर्थ जीने का
बताओ क्या करूँ मैं ?
लग रही है झड़ी क्षण में आँसुओं की
और पल में होंठ खिल जाते किसी के
कोई तो रोता विरह में सिसककर के
और पल में मीत मिल जाते किसी के
कर रहा कोशिश मैं प्रतिपल अश्क़ पीने का
बताओ क्या करूँ मैं ?
लाज तो अब कल्पना सी लग रही है
सुर्ख़ चेहरा — घड़ा चिकना हो गया है
अर्थ से ही आँकते हैं प्रेम को भी
ज़िन्दगी का अर्थ बिकना हो गया है
लग रहा है मोल भी देखो पसीने का
बताओ क्या करूँ मैं ?